- क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय एकता | क्षेत्रवाद पर निबंध | Regionalism Essay in Hindi
- क्षेत्रवाद औपनिवेशिक शासन की देन
- क्षेत्रवाद का विस्तार
- क्षेत्रवाद के रूप तथा समस्याएँ
- क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय एकता
- क्षेत्रवाद को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने हेतु सुझाव
- Regionalism in India – Audio Article video
- निष्कर्ष
क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय एकता | क्षेत्रवाद पर निबंध | Regionalism Essay in Hindi
भारतीय संविधान में सामाजिक समानता को मूलभूत अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। गाँधीजी, नेहरू और डॉ. अम्बेडकर जैसे नीति प्रगर्तकों में संविधान निर्माण के दौरान इस व्यवस्था का इस आधार पर समर्थन किया था कि संवैधानिक स्वरूप ग्रहण कर लेने के पश्चात् देश की सामाजिक व्यवस्था को क्षेत्रवाद से मुक्त होने का अवसर प्राप्त होगा तथा देश में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव होगा, जिसमें सभी लोग एक समान होंगे तथा भाषा, सम्प्रदाय तथा क्षेत्र के आधार पर उनमें परस्पर विभेद नहीं होगा।
संविधान के प्रवर्तन के सात दशक हो गए हैं, फिर भी इतने वर्षों बाद भी यह प्रश्न आज भी हमें उद्वेलित कर रहा है कि समता पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के बावजूद भारत के राजनीतिक ही नहीं, चरन् सामाजिक जीवन में भी क्षेत्रीय भेदभाव उसी रूप में विद्यमान है, जिस रूप में वह स्वतन्त्रता से पूर्ण था।
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी देश के उस छोटे से क्षेत्र से है, जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। अपने क्षेत्र या भूगोल के प्रति अधिक प्रयत्न आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों की चाह की भावना को क्षेत्रवाद के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार की भावना से बाहरी बनाम भीतरी तथा अधिक संकीर्ण रूप धारण करने पर यह क्षेत्र बनाम राष्ट्र हो जाती है, जो किसी भी देश की एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन जाती है।
भारत सहित दुनिया के अन्य अनेक देशों में क्षेत्रवाद की मानसिकता को लेकर वहाँ के निवासी स्वयं को विशिष्ट मानते हुए, अन्य राज्यों व लोगों से अधिक अधिकारों की माँग करते हैं, आन्दोलन करते हैं तथा सरकार पर अपनी माँग मनचाने लिए दबाव डाला जाता है। कई बार इस तरह की कोशिशों का परिणाम हिंसा के रूप में सामने आता है।
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क्षेत्रवाद औपनिवेशिक शासन की देन
वस्तुत: क्षेत्रबाद की समस्या कोई नई नहीं है। स्वतन्त्रता के पूर्व यह समस्या अंग्रेजों द्वारा प्रेरित थी, जिसके मूल में ‘उनकी ‘बाँटो और राज करो’ की नीति थी। संविधान में इस दुष्प्रवृत्ति को समाप्त करने के ध्येय से भारत को ‘राज्यों का संघ’ घोषित किया गया। शक्तिशाली केन्द्र, एकल नागरिकता, एकीकृत न्यायपालिका तथा एकीकृत अखिल भारतीय सेवा जैसी व्यवस्था के माध्यम से क्षेत्रीयता को समाप्त करने का हर सम्भव प्रवास किया गया, किन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत में क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का तीव्र गति से विकास हुआ।
अंग्रेजो की ‘बाँटो और राज करो’ की नीति को अब हमारे राजनेताओं ने अपना लिया और आज वे इस मूल मन्त्र का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। क्षेत्रबाद के नाम पर जहाँ देश के कुछ हिस्सों में उत्तर भारतीयों को खदेड़ने के अभियान छेड़े जाते रहे हैं, वहीं अलगाव की प्रवृत्तियाँ भी बढ़ी है।
वर्ष 1968 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग व असलवादी क्षेत्रों में होने वाले उपद्रवों से चिन्तित होकर केन्द्र सरकार द्वारा उपद्रवारत क्षेत्रों में हथियार रखने पर प्रतिवन्ध लगा देने को राज्य सरकार द्वारा केन्द्र का हस्तक्षेप मानना व जनता पार्टी के शासनकाल में गौ हत्या प्रतिबन्ध के विषय घर केन्द्र और तमिलनाडु, केरल व पं. बंगाल की सरकारों के बीच विवाद उत्पन्न होना उम्र क्षेत्रवाद का एक प्रमुख उदाहरण है।
साधारणतया क्षेत्रवाद या क्षेत्रीयता कोई नकारात्मक प्रवृत्ति नहीं है। अपने धर्म, संस्कृति, अपनी परम्पराओं, अपने
क्षेत्र से प्रेम एक अच्छी प्रवृत्ति है। इसमें बुराइयों का समावेश तब हो जाता है, जब हम क्षेत्रवाद की राष्ट्रवाद से ऊपर मानने लगते हैं। एक क्षेत्र विशेष के व्यक्तियों द्वारा अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति भावनात्मक एकता का होना स्वाभाविक लक्षण है. किन्तु इस स्वाभाविक प्रवृत्ति में जब संकीर्णता आने लगती है तथा व्यक्ति अपने क्षेत्रीय हितों के प्रति इतना अधिक संकेन्द्रित हो जाता है कि यह राष्ट्रवाद की भावना का परित्याग कर देता है।
क्षेत्रवाद का विस्तार
मानसिकता के साथ अस्तित्व में आए इन संगठनों ने सदैव क्षेत्रवाद को बढ़ावा देकर राष्ट्रवाद की भावना को क्षति पहुंचाने का काम किया है और अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है, जिसका विस्तार भी हुआ है।
समक्ष खतरा पैदा कर देती है। देश में क्षेत्रवाद की समस्या किसी क्षेत्र विशेष की समस्या नहीं, बल्लू पूरे देश की समस्या बन चुकी है। इसी क्षेत्रीयता के कारण देश के अनेक भागों में विभिन्न राजनीतिक दलों तथा संगठनों का आविर्भाव हुआ है।
क्षेत्रवाद के रूप तथा समस्याएँ
भारत के भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयताबाद की प्रवृत्ति के अनेक रूप हैं और इसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग स्थानों पर पता से अलग-अलग तरीके से हुई है। कभी साम्प्रदायिक आधार पर देश विभाजन की माँग उठाई जाती है, तो कभी भाषायी या अन्य आधारों पर अलग राज्य के लिए उम्र में हिंसक आन्दोलन होते हैं। जैसे पूर्वोत्तर भारत में गोरखालैण्ड के लिए लगातार मांग उठ रही है, तो वहीं उत्तर प्रदेश को विभाजित कर पूर्वांचल को एक अलग राज्य के रूप में गठित करने की माँग लोगों द्वारा की जाती रही है। इसके अतिरिक्त कभी संकीर्ण भावनाओं तो कभी सुविधाओं एवं सहूलियतों के लिए गलत तरीके से दबाव बनाया जाता है।
क्षेत्रीयतावाद की प्रवृत्तियों के कारण देश में अनेक समस्याएँ उभरती हैं। इस प्रवृत्ति ने देश को धर्म, भाषा, जाति, शिष्ट सम्प्रदाय तथा क्षेत्र के आधार पर बाँटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वर्तमान युग आर्थिक युग है। इस युग में किसी मोग एक स्थान पर रहकर कोई भी विकास की कल्पना नहीं कर सकता है।
भारतीय संविधान भी नागरिकों को देश के किसी भी है। हिस्से में रहकर आजीविका प्राप्त करने का अवसर देता है, किन्तु क्षेत्रीयता का मुद्दा इसमें आड़े आता है; जैसे-महाराष्ट्र से गैर-मराठियों का भगाया जाना। इससे एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष की भावना पनपती है तथा विकास के मार्ग अवरूद्ध होते हैं। क्षेत्रवाद की मानसिकता से हमारे देश की एकता व अखण्डता को अति पहुंच रही है। क्षेत्रीयवाद के नाम पर कश्मीर में शुरू हुआ आन्दोलन आज विदेशी ताकतों के इशारे पर आतंकवादी रूप ले चुका है।
स्वातन्त्रता के पश्चात् से देश में क्षेत्रवाद की प्रवृत्तियों और मुखर हुई हैं। इसके परिणामस्वरूप अघोषित रूप में देश कई भागों में बँट गया है। इसके कारण विभिन्न राज्यों के निवासी अपने राज्यों में नौकरियों और रोजगार में अपने लिए विशेष आरक्षण की माँग करते हैं, जो कि संविधान की भावना के खिलाफ है।
क्षेत्रवाद के कारण अनेक निम्न समस्याएँ जन्म लेती है, जो निम्नलिखित हैं
- विभिन्न क्षेत्र के लोगों के मध्य विद्वेष की भावना का प्रसार
- राज्य तथा केन्द्र सरकार के मध्य तनाव की स्थिति
- विभिन्न राज्यों में स्वार्थपूर्ण नेतृत्व का स
- भाषायी तथा सांस्कृतिक टकराव की समस्या
- विकास सम्बन्धी कार्यों में अवरोध
- नौकरशाही में भ्रष्टाचार
- देश की एकता तथा अखण्डता को चुनती
क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय एकता
क्षेत्रवाद जहाँ विघटनकारी प्रवृत्ति को दर्शाता है, यहाँ राष्ट्रीय एकता देश को जोड़ने का काम करती है। राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य है- देश के विभिन्न घटकों में परस्पर एकता प्रेम एवं भाईचारे का कायम रहना, भले ही उनमें वैचारिक और आस्थागत असमानता क्यों न हो। भारत में कई धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं जिनके रहन-सहन एवं आस्या में अन्तर तो है ही, साथ ही उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग है। इन सबके बावजूद पूरे भारतवर्ष के लोग भारतीयता की जिस भावना से ओतप्रोत रहते हैं उसे राष्ट्रीय एकता का विश्वभर में सर्वोत्तम उदाहरण कहा जा सकता है।
राष्ट्रीय एकता का परिणाम है कि जब कभी भी हमारी एकता को खण्डित करने का प्रयास किया गया, भारत का एक-एक नागरिक सजग होकर ऐसी असामाजिक शक्तियों के विरुद्ध खड़ा दिखाई दिया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है। “भारत की एकता तथा चेतना समय की कसौटी पर सही सिद्ध हुई है।”
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीयता के लिए भौगोलिक सीमाएँ, राजनीतिक चेतना और सांस्कृतिक एकबद्धता अनिवार्य होती है। यद्यपि प्राचीनकाल में हमारी भौगोलिक सीमाएँ इतनी व्यापक नहीं थी और यहाँ अनेक राज्य स्थापित थे, तथापि हमारी संस्कृति और धार्मिक चेतना एक थी। कन्याकुमारी से हिमालय तक और असोम से सिन्ध तक भारत की संस्कृति और धर्म एक थे। यही एकात्मकता हमारी राष्ट्रीय एकता की नींव थी। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपनी-अपनी अलग परम्परा, रीति-रिवाज व आस्थाएँ थी, किन्तु समूचा भारत एक सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध था। इसी को अनेकता में एकता एवं विविधता में एकता कहा जाता है और यहीं पूरी दुनिया में भारत की अलग पहचान स्थापित कर इसके गौरव को बढ़ाता है।
क्षेत्रवाद को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने हेतु सुझाव
- देश के सभी क्षेत्री के विकास पर ध्यान केन्द्रित करना।
- केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व अविकसित तथा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के विकास के लिए विशेष रणनीति बनाने की जरूरत, ताकि क्षेत्रीय असन्तोष उत्पन्न न हो।
- क्षेत्रीय आधार पर भाषा और संस्कृति सम्बन्धी टकराव को रोकने के लिए योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने की जरूरत।
- किसी एक क्षेत्र में सीमित संस्कृति एवं भाषा को प्रचार-प्रसार के माध्यम से फैलाया जाना चाहिए, ताकि सांस्कृतिक आदान-प्रदान की स्थिति बने और सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण हो।।
- राष्ट्रवाद की भावना का प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता, ताकि क्षेत्रीयतावादी संकीर्ण विचारधारा का लोप हो सके।
- विश्व की भावना का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
- जनसामान्य को शिक्षित एवं जागरूक किया जाना चाहिए ताकि वे अपने तथा अन्य के नागरिक एवं संवैधानिक अधिकारों का आदर कर सके।
Regionalism in India – Audio Article video
निष्कर्ष
क्षेत्रीयताबाद पर लगाम लगाना हमारे लिए आज एक बड़ी चुनौती है। किसी भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की सुदृढता के लिए यह आवश्यक है कि उसकी एकता और अखण्डता पर आंच न आए। इसके लिए हमारे राजनेताओं को आगे आना होगा। अपने क्षेत्र में क्षेत्रीयतावादी राजनीति कर अपने नेतृत्य को बनाए रखने वाले नेताओं को राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनान्स होगा। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता में ही भलाई है।
सामाजिक मुद्दों पर निबंध | Samajik nyay
refernce
Regionalism Essay in Hindi