- सिनेमा का आविष्कार और इसका विकास | समाज पर सिनेमा का प्रभाव पर निबंध
- सिनेमा का समाज से सम्बन्ध | Impact Cinema On Society Essay in Hindi
- भारत में सिनेमा की शुरुआत और विकास
- सिनेमा का उद्देश्य एवं समाजोपयोगी सिनेमा
- सिनेमा, मनोरंजन का सुलभ साधन
- सिनेमा का सकारात्मक प्रभाव
- सिनेमा का नकारात्मक प्रभाव
- HINDI ESSAY ON IMPACT OF CINEMA IN LIFE . video
- निष्कर्ष
विज्ञान ने जहाँ मानव को सुविधापूर्वक बड़े-बड़े काम करने के साधन उपलब्ध कराए हैं, वहीं खाली समय में मनोरंजन के अवसर भी उपलब्ध कराए हैं। सिनेमा ऐसा ही एक लोकप्रिय साधन है। जिस तरह से साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसी तरह से सिनेमा भी समाज को प्रतिबिम्बित करता है। भारतीय युवाओं में प्रेम के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने की बात हो या सिनेमा के कलाकारों के पहनावे के अनुरूप फैशन का प्रचलन, ये सभी सिनेमा के प्रभाव ही है।
सिनेमा का आविष्कार और इसका विकास | समाज पर सिनेमा का प्रभाव पर निबंध
सिनेमा अर्थात् चलचित्र का आविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। चित्रों को संयोजित कर उन्हें दिखाने को ही चलचित्र कहते हैं। इसके लिए प्रयास तो 1870 ई. के आस-पास ही शुरू हो गए थे, किन्तु इस स्वप्न को साकार करने में विश्वविख्यात वैज्ञानिक एडीसन एवं फ्रांस के ल्यूमिर बन्धुओं का योगदान प्रमुख था। ल्यूमिर बन्धुओं ने 1895 ई. में एडीसन के सिनेमैटोग्राफी पर आधारित एक यन्त्र की सहायता से चित्रों को चलते हुए प्रदर्शित करने में सफलता पाई और इस तरह सिनेमा का आविष्कार हुआ।
अपने आविष्कार के बाद लगभग तीन दशकों तक सिनेमा मूक बना रहा। वर्ष 1927 में वार्नर ब्रदर्स ने आंशिक रूप से सवाक फिल्म ‘जाज सिंगर बनाने में सफलता पाई। इसके बाद वर्ष 1928 में पहली पूर्ण सचाकू फिल्म ‘लाइट्स ऑफ न्यूयॉर्क’ का निर्माण हुआ। सिनेमा के आविष्कार के बाद से इसमें कई परिवर्तन होते रहे और इसमें नवीन तकनीकों का प्रयोग होता रहा। अब फिल्म निर्माण तकनीक अत्यधिक विकसित हो चुकी है, इसलिए आधुनिक समय में निर्मित सिनेमा के दृश्य एवं ध्वनि बिल्कुल स्पष्ट होते हैं।
सिनेमा का समाज से सम्बन्ध | Impact Cinema On Society Essay in Hindi
सिनेमा की शुरुआत से ही इसका समाज के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। प्रारम्भ में इसका उद्देश्य मात्र लोगों का मनोरंजन करना था। अभी भी अधिकतर फिल्में इसी उद्देश्य को लेकर बनाई जाती हैं, इसके बावजूद सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कुछ लोगों का मानना है कि सिनेमा समाज के लिए अहितकर है एवं इसके कारण अपसंस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
समाज में फिल्मों के प्रभाव से फैली अश्लीलता एवं फैशन के नाम पर नंगेपन को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु सिनेमा के बारे में यह कहना कि यह केवल बुराई फैलाता है, सिनेमा के साथ अन्याय करने के तुल्य होगा। सिनेमा का प्रभाव समाज पर कैसा पड़ता है, यह समाज की मानसिकता पर निर्भर करता है। सिनेमा में प्रायः अच्छे एवं बुरे दोनों पहलुओं को दर्शाया जाता है। समाज यदि बुरे पहलुओं को आत्मसात् करे, तो इसमें सिनेमा का क्या दोष है।
विवेकानन्द ने कहा था “संसार की प्रत्येक चीज अच्छी है, पवित्र है और सुन्दर है। यदि आपको कुछ बुरा दिखाई देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह चीज बुरी है। इसका अर्थ यह है कि आपने उसे सही रोशनी में नहीं देखा।” द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो युद्ध की त्रासदी को प्रदर्शित करने में सक्षम थीं। ऐसी फिल्मों से समाज को एक सार्थक सन्देश मिलता है। सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सिनेमा सक्षम है। दहेज प्रथा, बाल विवाह इस जैसी अन्य सामाजिक समस्याओं का फिल्मों में चित्रण कर कई बार परम्परागत बुराइयों का विरोध किया गया है। समसामयिक विषयों को लेकर भी सिनेमा निर्माण सामान्यतया होता रहा है।
भारत में सिनेमा की शुरुआत और विकास
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ थी। दादा साहब फाल्के द्वारा यह मूक फिल्म वर्ष 1913 में बनाई गई थी। उन दिनों फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब महिला किरदार भी पुरुष ही निभाते थे। जब फाल्के जो से कोई यह पूछता कि आप क्या करते हैं, तब वे कहते थे “एक हरिश्चन्द्र की फैक्ट्री है, हम उसी में काम करते हैं। उन्होंने फिल्म में काम करने बाले सभी पुरुषकर्मियों को भी यही कहने की सलाह दे रखी थी, किन्तु धीरे-धीरे फिल्मों का समाज पर सकारात्मक प्रमाण देख इनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी सकारात्मक होता गया।
भारत में इम्पीरियल फिल्लमा कम्पनी द्वारा आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में वर्ष 1981 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई गई। प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं ऐतिहासिक फिल्मों का बोलबाला रहा, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक फिल्मों का भी बड़ी संख्या में निर्माण किया जाने लगा।
छत्रपति शिवाजी, झाँसी की रानी, मुगले आजम, मदर इण्डिया आदि फिल्मों ने समाज पर अपना गहरा प्रभाव डाला। उन्नीसमी सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए, जिन्होंने कई सार्थक एवं समाजोपयोगौ फिल्मों का निर्माण किया।
सत्यजीत राय (पाथेर पांचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), बी. शान्ताराम (डॉ. कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, शकुन्तला ), ऋत्विक घटक (मेघा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी ओं कथा), अडूर गोपाल कृष्णन (स्वयंवरम्), श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्टाचार्य (तीसरी कसम), गुरुदत्त (प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम) और विमल राय (दो बीघा जमीन, बन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध फिल्मकार है।
सिनेमा का उद्देश्य एवं समाजोपयोगी सिनेमा
सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि करना भी होता है, किन्तु सिनेमा के निर्माण में निर्माता को अत्यधिक धन निवेश करना पड़ता है, इसलिए वह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ ऐसी बातों, स्थानों आदि को भी सिनेमा में जगह देता है या देना शुरू करता है, जो भले ही समाज का स्वच्छ मनोरंजन न करती हों, पर जिन्हें देखने वाले लोगों की संख्या अधिक हो।
गीत-संगीत, नाटकीयता एवं मार-धाड़ से भरपूर फिल्मों का निर्माण भी अधिक दर्शक संख्या को ध्यान में रखकर किया जाता है। सार्थक और समाजोपयोगी सिनेमा आम आदमी की समझ से भी बाहर होता है एवं ऐसे सिनेमा में आम आदमी की रुचि भी नहीं होती, इसलिए समाजोपयोगी सिनेमा के निर्माण में लगे धन की वापसी की प्राय: कोई सम्भावना नहीं होती।
इन्हीं कारणों से निर्माता ऐसी फिल्मों के निर्माण से बचते हैं। बावजूद इसके कुछ ऐसे निर्माता भी हैं, जिन्होंने समाज के विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर सिनेमा का निर्माण किया, जिससे न केवल सिनेमा का, बल्कि समाज का भी भला हुआ। ऐसी कई फिल्मों के बारे में सत्यजीत राय कहते हैं, “देश में प्रदर्शित किए जाने पर मेरी जो फिल्में लागत भी नहीं बसूल पार्ती, उनका प्रदर्शन विदेश में किया जाता है, जिससे बाटे की भरपाई हो जाती है।” वर्तमान समय में ऐसे फिल्म निर्माताओं में प्रकाश झा एवं मधुर भण्डारकर का नाम लिया जा सकता है। इनकी फिल्मों में भी आधुनिक समाज को भली-भाँति प्रतिबिम्बित किया जाता है, जिससे व्यक्ति के ज्ञानकोष में वृद्धि होती है।
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सिनेमा, मनोरंजन का सुलभ साधन
सिनेमा देखते समय मनुष्य अपने जीवन की वास्तविक कठिनाइयों और कटुता को भुलाकर कल्पनामय सुखद लोक में विचरण करने लगता है। उसके जीवन की एकरसता दूर हो जाती है। साधारण व्यक्ति का जीवन संघर्षमय एवं कठिनाई से भरा होता है। इस नीरसता को दूर करने में सिनेमा बड़ी प्रभावशाली भूमिका निभाता है। गरीब से गरीब व्यक्ति अपने जीवन के सभी अभावों एवं कटुताओं को कुछ समय के लिए भूलकर कल्पना लोक में भ्रमण करने लगता है।
इस प्रकार, समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों का मनोरंजन करने का यह बड़ा सशक्त और सुगम साधन है। पर्दे पर देश-विदेश के मनोहारी दृश्य, हैरतअंगेज कारनामे, रोमांस का बातावरण और सुन्दर तथा विशाल अट्टालिकाएँ आदि देखकर सभी व्यक्ति पुलकित और आनन्दित हो उठते हैं।
सिनेमा का सकारात्मक प्रभाव
सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं है, अपितु इसके अनेक लाभ भी हैं। इसने रंगमंच का विकास किया है। नाटकों में बहुत से दृश्यों को आसानी से नहीं दिखाया जा सकता है, उन्हें सिनेमा बड़ी सरलता से दिखाने में सफल होता है। सिनेमा के माध्यम से अनेक कलाओं का विकास हुआ है। बड़े-बड़े सेटों के सजने में मूर्तिकला एवं वास्तुकला के विकास में भी सिनेमा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संगीत, नृत्य, काव्यकला, कथोपकथन आदि कलाओं की व्यापक उन्नति सिनेमा की ही देन है।
शिक्षा की दृष्टि से भी सिनेमा बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। सामाजिक बुराइयों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करके सिनेमा अपने दर्शकों को उनके प्रति सचेत करता है। सिनेमा सामाजिक बुराइयों को दूर करके और उपाय सुझाकर हमारी ज्ञान वृद्धि में सहायक सिद्ध हुआ है। वास्तविक जीवन में भूत, वर्तमान और भविष्य को एकसाथ देखना सम्भव नहीं होता है।
सिनेमा के पर्दे पर हम इसे आसानी से देख सकते हैं। पुस्तक पढ़ने की अपेक्षा सिनेमा के पर्दे पर देखी गई बातों का प्रभाव अधिक व्यापक, स्थायी और प्रत्यक्ष होता है। जो बातें सप्ताहों तक पुस्तकों को पढ़कर हम आत्मसात् नहीं कर पाते हैं, उन्हें सिनेमा द्वारा कुछ घण्टों में ही आसानी से समझ सकते हैं। समाज की मनोवृत्ति को बदलने में सिनेमा बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सिनेमा प्रचार का बड़ा सशक्त माध्यम है। किसी सन्देश को व्यापक रूप से प्रसारित करने में सिनेमा बड़ा उपयोगी सिद्ध होता है। युद्ध या किसी राष्ट्रीय संकट काल में प्रभावी चलचित्रों के माध्यम से जनता का मनोबल बढ़ाकर उनमें जागृति लाई जा सकती है। सिनेमा द्वारा विज्ञापन बड़े आकर्षक ढंग से किया जा सकता है। चलचित्र के प्रारम्भ में स्लाइडों तथा विशेष रूप से तैयार किए गए लघु चित्र दिखाकर वस्तु की उपयोगिता बड़ी आसानी से समझाई जा सकती है। जनता मे नई-नई वस्तुओं का अधिकाधिक प्रचार करने में सिनेमा मुख्य भूमिका निभाता है।
सिनेमा का एक बड़ा लाभ यह भी है कि इसके माध्यम से देश-विदेश के महान साहित्य को केबल शिक्षित लोगों के एकाधिकार से निकालकर सामान्य जनता के समक्ष लाया जा सकता है। रामचरितमानस, शकुन्तला, गोदान, चित्रलेखा, देवदास, माँ जैसी प्रसिद्ध रचनाएँ, जो कुछ समय पहले कुछ पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित थीं, आज सिनेमा की बदौलत जन-जन तक पहुँच गई हैं। सिनेमा में अनेक वर्गों और हितों के दृष्टिकोणों को प्रभावशली ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। समस्या के दोनों पक्षों का इस प्रकार चित्रण किया जाता है कि दर्शक समस्या का समाधान खोज सकें। इससे जनता में संकीर्णता दूर होती है और उनका दृष्टिकोण उदार और व्यापक बन जाता है।
वर्तमान में परम्परागत फिल्मों से हटकर सामाजिक सरोकारिता वाली फिल्मों का निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहा है। टॉयलेट-एक प्रेम कथा, न्यूटन, कड़वी हवा, क्वीन, पैडमैन, आर्टिकल 15 आदि इस श्रृंखला की फिल्में हैं। इन सभी फिल्मों में विभिन्न सामाजिक समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की गई है।
ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं। इस प्रकार, आज भारत में बनाई जाने वाली फिल्में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो रही हैं। ऐसे में भारतीय फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मों से देशवासियों की उम्मीदें काफी बढ़ गई है, जो भारतीय फिल्म उद्योग के लिए सकारात्मक भी हैं।
सिनेमा का नकारात्मक प्रभाव
सिनेमा से जहाँ अनेक लाभ हैं, वहीं कुछ हानियाँ भी हैं। सिनेमा देखकर दर्शक जीवन की वास्तविकता से दूर होकर हवाई किले बनाने लगता है। भारत के चलचित्रों में अधिकांशतः प्रेम कहानियाँ दिखाई जाती है। पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक बुराइयाँ, भ्रष्टाचार आदि में वृद्धि हुई है, इसका प्रभाव इस दौरान निर्मित फिल्मों पर भी दिखाई पड़ा है।
फिल्मों में आजकल सेक्स और हिंसा को कहानी का आधार बनाया जाने लगा है। तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंसा एवं सेक्स को अन्य रूप में भी कहानी का हिस्सा बनाया जा सकता है, किन्तु युवा वर्ग को आकर्षित कर धन कमाने के उद्देश्य से जान-बूझकर सिनेमा में इस प्रकार के चित्रांकन पर बल दिया जाता है। इसका कुप्रभाव समाज पर भी पड़ता है।
दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील एवं हिंसात्मक दृश्यों को देखकर व्यावहारिक दुनिया में भी गलत-व्यग्रहार करने लगते हैं। इस प्रकार, नकारात्मक फिल्मों से समाज में अपराध का ग्राफ भी प्रभावित होने लगता है। इसका किशोर मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। वे छोटी उम्र में ही अपने आवेगों पर से नियन्त्रण खो बैठते हैं। सिनेमा की चकाचौंध से प्रभावित होकर बहुत से लोग बुरे कार्यों में लिप्त होकर अपने शौक को पूरा करने के लिए धन जुटाने लगते हैं।
इसके साथ ही, मार-काट, हिंसा, बलात्कार, चोरी और डकैती आदि के व्यापक प्रदर्शन से बाल युवा मन पर बढ़ा प्रभाव पड़ता है। इसके फलस्वरूप वर्तमान समाज में हिंसा और अव्यवस्था फैलती जा रही है, जो समाज को कुप्रभावित कर रहा है। सिनेमा का स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। बन्द हॉल में घण्टों तक स्वच्छ वायु नहीं मिलती है। इसमें साँस लेकर हमारे फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। हमारी आँखों पर भी सिनेमा के पर्दे पर पड़ने वाली तेज रोशनी का बुरा प्रभाव पड़ता है।
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निष्कर्ष
वर्ष 2018 के दादा साहेब फाल्के पुरस्कार विजेता अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय द्वारा पोलियो मुक्ति अभियान के अन्तर्गत कहे गए शब्दों ‘दो बूँद जिन्दगी की’ का समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। लता मंगेशकर, आशा. भोसले, मोहम्मद रफी, मुकेश आदि फिल्म से जुड़े गायक-गायिकाओं के गाए गीत लोगों की जुबान पर सहज ही आ जाते है। स्वतन्त्रता दिवस हो, गणतन्त्र दिवस हो या फिर रक्षाबन्धन जैसे अन्य त्योहार, इन अवसरों पर भारतीय फिल्मों के गीतों का बजना या गाया जाना हमारी संस्कृति का अंग बन चुका है।
वर्तमान समय में भारतीय फिल्म उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर है। आज हमारी फिल्मों को ऑस्कर पुरस्कार मिल रहे हैं। यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है। निर्देशन, तकनीक, फिल्मांकन, लेखन, संगीत आदि सभी स्तरों पर हमारी फिल्में विश्वस्तरीय है। आज हमारे निर्देशकों, अभिनय करने वाले कलाकारों आदि को न केवल हॉलीवुड में काम करने का अवसर मिल रहा है, बल्कि धीरे-धीरे में विश्व स्तर पर स्थापित भी होने लगे हैं। आज आम भारतीयों द्वारा फिल्मों से जुड़े लोगों को काफी महत्त्व दिया जाता है।
सामाजिक मुद्दों पर निबंध | Samajik nyay
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