आज भारतीय राजनीति में फैले भ्रष्टाचार और उच्च संवैधानिक पदों के लिए नेताओं के बीच मची होड़ को देख यह विश्वास नहीं होता कि देश ने कभी किसी ऐसे महापुरुष को भी देखा होगा, जिसने अपनी जीत की पूर्ण सम्भावना के बाद भी यह कहा हो कि “यदि एक व्यक्ति भी मेरे विरोध में हुआ, तो उस स्थिति में में प्रधानमन्त्री बनना नहीं चाहता। Lal Bahadur Shastri Essay in Hindi
भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री श्री लालबहादूर शास्त्री ऐसे ही महान राजनेता थे, जिनके लिए पद नहीं, बल्कि देश का हित सर्वोपरि था। 27 मई, 1964 को प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद देश को साहस एवं निर्भीकता के साथ नेतृत्व करने वाले नेता की जरूरत थी।
जब प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के रूप में मोरारजी देसाई और जगजीवन राम जिसे नेता सामने आए, तो इस पद की गरिमा और प्रजातान्त्रिक मूल्यों को देखते हुए शास्त्री जी ने चुनाव में भाग लेने के स्पष्ट इनकार कर दिया। अन्ततः कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष कामराज ने कांग्रेस की एक बैठक बुलाई, जिसमे शा जी को समर्थन देने की बात की गई और 2 जून, 1964 को कांग्रेस के संसदीय दल ने सर्व सम्मति से उन्हें अपना श स्वीकार किया। इस तरह 19 जून 1964 को लालबहादुर शास्त्री देश के दूसरे प्रधानमन्त्री बनाए गए।
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लालबहादुर का जीवन परिचय | लालबहादुर शास्त्री पर निबन्ध | Lal Bahadur Shastri Essay in Hindi
लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में स्थित मुगलसराय नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री शारदा प्रसाद एक शिक्षक थे, जो शास्त्री जी के जन्म के केवल डेढ वर्ष बाद स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद उनकी माँ रामदुलारी देवी उनको लेकर अपने मायके मिर्जापुर चली गई। शास्त्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा उनके नाना के घर पर ही हुई। पिता की मृत्यु के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. ऊपर से उनका स्कूल गा नदी के उस पार स्थित था। नाव से नदी पार करने के लिए उनके पास थोड़े-से पैसे भी नहीं होते थे।
ऐसी परिस्थिति में कोई दूसरा होता तो अवश्य अपनी पढ़ाई छोड़ देता, किन्तु शास्त्री जी ने हार नहीं मानी, वे स्कूल जाने के लिए तैरकर गंगा नदी पार करते थे। इस तरह, कंठिनाइयों से लड़ते हुए छठी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आने की पढ़ाई के लिए वे अपने मौसा के पास चले गए।
वहाँ से उनकी पढ़ाई हरिश्चन्द्र हाईस्कूल तथा काशी विद्यापीठ में हुई।वर्ष 1920 में गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, किन्तु बाद में उन्हीं की देशा से उन्होंने काशी विद्यापीठ में प्रवेश लिया और यहाँ से वर्ष 1925 में ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की। शास्त्री की उपाधि मिलते ही उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द ‘श्रीवास्तयां हमेशा के लिए हटा लिया तथा अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया। इसके बाद में देश सेवा में पूर्णतः ससन्न हो गए।
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स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान
जी की प्रेरणा से ही शास्त्री जी अपनी पढ़ाई छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे और उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने बाद में काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि भी प्राप्त की। इससे पता चलता है कि उनके जीवन पर गांधीजी ● काफी गहरा प्रभाव था और बापू को वे अपना आदर्श मानते थे। वर्ष 1920 में असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण ढाई वर्ष के लिए जेल में भेज दिए जाने के साथ ही उनके स्वतन्त्रता संग्राम का अध्याय शुरू हो गया था।
कांग्रेस के कर्मठ सदस्य के रूप में उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभानी शुरू की। वर्ष 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग के कारण उन्हें पुनः जल भेज दिया गया। शास्त्री जी की निष्ठा को देखते हुए पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस का चिप बनाया। ब्रिटिश शासनकाल में किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई पद काँटों की सेज से कम नहीं हुआ करता पर शास्त्री जी वर्ष 1936 से लेकर वर्ष 1998 तक इस पद पर रहते हुए अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते रहे।
इसी बीच वर्ष 1937 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुन लिए गए और उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री का सदीय सचिव भी नियुक्त किया गया। साथ ही ये उत्तर प्रदेश कमेटी के महामन्त्री भी चुने गए और इस पद पर वर्ष 1941 तक बने रहे। स्वतन्त्रता रखाम में अपनी भूमिका के लिए देश के इस सपूत को अपने जीवनकाल में कई बार जेल की यातनाएँ सहनी पड़ी थी। वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें पुनः जेल भेज दिया गया।
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राजनीतिक जीवन
वर्ष 1946 में उत्तर प्रदेश तत्कालीन मुख्यमन्त्री प गोविन्द यम पन्त ने शास्त्री जी को अपना सभा सचिव नियुक्त किया तथा वर्ष 1947 में उन्हें अपने मन्त्रिमण्डल में शामिल किया। गोविन्द बल्लभ पन्त के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस और परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहको (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति थी। पुलिस मन्त्री के रूप में उन्होंने भीड़ को नियन्त्रित रखने के लिए लाठी की जगह पानी बौछार प्रयोग प्रारम्भ करवाया। उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा और योग्यता को देखते हुए वर्ष 1951 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। वर्ष 1952 में नेहरू जी ने उन्हें रेलमन्त्री नियुक्त किया।
रेलमन्त्री पद पर रहते हुए वर्ष 1956 में एक बड़ी रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हार नैतिक आधार पर मन्त्री पद त्यागपत्र देकर उन्होंने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। वर्ष 1967 में जब वे इलाहाबाद से संसद के लिए निर्वाचित हुए तो नेहरू जी ने उन्हें अपने मन्त्रिमण्डल में परिवहन एवं संचार मन्त्री नियुक्त किया। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1958 में वाणिज्य और उद्योग मन्त्रालय की जिम्मेदारी संभाली। वर्ष 1961 में प गोविन्द वल्लभ पन्त के निधन के उमात उन्हें गृहमन्त्री का उत्तरदायित्व सौंपा गया। उनकी कर्तव्यनिष्ठा एवं योग्यता के साथ-साथ अनेक संवैधानिक पद पर रहते हुए सफलतापूर्वक अपने दायित्वों को निभाने का ही परिणाम था कि 9 जून, 1964 को वे सर्वसम्मति से देश के दूसरे प्रधानमन्त्री बनाए गए।
शास्त्री जी कठिन से कठिन परिस्थिति का सहजता से साहस, निर्भीकता एवं धैर्य के साथ सामना करने की अनोखी ममता रखते थे। इसका उदाहरण देश को उनके प्रधानमन्त्रित्व काल में देखने को मिला। वर्ष 1965 में पाकिस्तान ने जब पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया, तो शास्त्री जी के नारे ‘जय जवान, जय किसान से उत्साहित होकर जहाँ एक और चीर जवानों ने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राण हथेली पर रख लिए. तो दूसरी ओर किसानों ने अपने परिश्रम से क-से-अधिक अन्न उपजाने का संकल्प लिया। परिणामतः न केवल युद्ध में भारत को अभूतपूर्व विजय प्राप्त हुई, देश के अन्त भण्डार भी पूरी तरह भर गए।
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अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ और साहस के बल पर अपने कार्यकाल में ने देश की अनेक समस्याओं का समाधान किया।वर्ष 1966 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति के बाद जनवरी, 1966 में सन्धि-प्रयत्न के सिलसिले में दोनों देशों के प्रतिनिधियों की बैठक ताशकन्द (वर्तमान उज्बेकिस्तान की राजधानी) में बुलाई गई थी। 10 जनवरी, 1966 को भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान ने एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किए और उसी दिन रात्रि को एक अतिथि गृह में शास्त्री जी की रहस्यमय परिस्थितियों में आकस्मिक मृत्यु हृदय गति रुक जाने के कारण हो गई।
शास्त्री जी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्ति बन के पास यमुना के किनारे की गई और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। उनकी मृत्यु से पूरा भारत शोकाकुल हो गया। शास्त्री जी के निधन से देश की जो बलि हुई उसकी पूर्ति सम्भव नहीं, किन्तु देश उनके तप, निष्ठा एवं कार्यों की सदा आदर और सम्मान के साथ याद करेगा। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए मृत्योपरान्त वर्ष 1966 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। तीव्र प्रगति एवं खुशहाली के लिए आज देश को शास्त्री जी जैसे निस्थार्थ राजनेताओं की आवश्यकता है।
लालबहादुर शास्त्री पर निबंध हिंदी में | Essay on Lal Bahadur Shastri in Hindi | Lal bahadur shastri video
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