यादे एक ऐसे व्यक्ति का नाम पूछा जाए, जिसने हॉकी के खेल में अपने करिश्माई प्रदर्शन से पूरी दुनिया को उपस्मित कर खेलों के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा लिया हो, तो उत्तर के रूप में केवल एक नाम मेज ध्यानचन्द ही होगा। हॉकी के मैदान पर जब वे खेलने उतरते थे, तब एक ऐसा मायावी इन्द्रजाल बुनते थे कि विरोधी टीम को हार सुनिश्चित लगने लगती थी। उनके बारे में यह कहा जाता है कि ये किसी भी कोण से गोल कर सकते थे। यही कारण है कि सेण्टर फॉरवर्ड के रूप में उनकी तेजी और जबरदस्त फुर्ती को देखते हुए उनके जीवनकाल में ही उन्हें ‘हॉकी कादूगर कहा जाने लगा था।
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जीवन परिचय | Dhyan Chand Essay in Hindi
हॉकी के ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी ध्यानचन्द का जन्म 29 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था। उनके पिता सोमेश्वर दत्त सिंह मूल रूप से पंजाब के निवासी थे और उस समय ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में सूबेदार के पद पर इलाहाबाद में तैनात थे। कुछ दिनों बाद उनका स्थानान्तरण झॉरी में हो गया, तिर ध्यानचन्द्र भी अपने पिता के साथ वहाँ रहने चले आए। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी झाँसी में ही हुई थी। अपने पिता के स्थानान्तरणों से पढ़ाई के बाधित होने और हॉकी के प्रति अपनी दीवानगी के कारण ये केवल छठी कक्षा तक ही दई कर सके। उनके बचपन का नाम ध्यानसिंह था।
वे बचपन में अपने मित्रों के साथ पेड़ की डाली से स्टिक और बेकार पड़े कपड़ों की गेंद बनाकर हॉकी खेला करते थे। बार की बात है, वे अपने पिता के साथ एक हॉकी मैच देख रहे थे। इसमें एक पक्ष के खिलाफ विरोधी पक्ष ने लगातार कई गोल किए। कमजोर पक्ष की स्थिति देखकर ध्यानचन्द ने अपने पिता से कहा कि यदि वे इस पक्ष की तरफ से खेलें, रणाम कुछ और ही होगा। वहीं पास में खड़ा आर्मी का एक अधिकारी उनकी बात को सुन रहा था।
उसने ध्यानचन्द को कमजोर पक्ष की ओर से खेलने दिया और थोड़ी ही देर में विरोधी टीम के खिलाफ लगातार चार गोल कर उन्होंने अपनो अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे दिया। उस समय उनकी आयु मात्र 14 वर्ष थी। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कुछ समय बाद आर्मी के उस अधिकारी ने उन्हें मात्र 16 वर्ष की आयु में भारतीय में भर्ती कर लिया। इसके बाद हॉकी से उनका साथ किसी-न-किसी रूप में जीवनपर्यन्त रहा।
सेना में शामिल होने के बाद उनके ब्राह्मण रेजीमेण्ट के कोच भोले तिवारी इनके पहले कोच बने। कहा जाता है कि सेना में सिपाही के तौर पर कार्य करने के कारण उनके पास हॉकी खेलने के लिए समय नहीं होता था, इसलिए रात को जब उनके सभी साथी बैरक में सो जाते थे, तब ध्यानचन्द चाँद की रोशनी में हॉकी का अभ्यास किया करते थे। इससे हॉकी के प्रति उनकी दीवानगी का पता चलता है।
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ओलम्पिक में ध्यानचन्द का प्रदर्शन
सेना में शामिल होने के साथ ही ध्यानचन्द के हॉकी खिलाड़ी के रूप में करियर की शुरुआत तब हुई, जब 21 वर्ष की • आयु में वर्ष 1926 में उन्हें न्यूजीलैण्ड जाने वाली भारतीय टीम में चुन लिया गया। इस दौरे में भारतीय सेना की टीम ने 21 में से 18 मैच जीते थे। 28 वर्ष की उम्र में ध्यानचन्द वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में पहली बार भाग ले रहीं भारतीय हॉकी टीम के सदस्य चुने गए। यहाँ चार मैचों में भारतीय टीम ने 23 गोल किए और अन्त में स्वर्ण पदक जीतने में सफल रही। वर्ष 1932 में लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में भारत ने अमेरिका को 24-1 के रिकॉर्ड अन्तर से हराया।
इस मैच में ध्यानचन्द एवं उनके बड़े भाई रूपसिंह ने आठ-आठ गोल किए थे। इस ओलम्पिक में भी भारतीय टीम को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। वर्ष 1996 के बर्लिन ओलम्पिक में ध्यानचन्द भारतीय हॉकी ओलम्पिक टीम के कप्तान थे। 15 अगस्त, 1936 को हुए फाइनल मैच में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराकर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया। इस मैच को जर्मनी का तत्कालीन तानाशाह हिटलर भी देख रहा था।
कहा जाता है कि मैच समाप्त होने के बाद स्वयं उसने ध्यानचन्द से मुलाकात कर उनके खेल की प्रशंसा की थी। इतना ही नहीं, विश्व के महान् क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन को भी ध्यानचन्द ने अपना कायल बना दिया था। वर्ष 1932 में भारतीय हॉकी टीम ने वर्षभर में कुल 37 मैच खेलकर 338 गोल बनाए थे और इनमें से 133 गोल ध्यानचन्द ने किए थे। उनके भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहते हुए टीम ने विभिन्न ओलम्पिक खेलों में कुल 28 गोल किए थे, इनमें से 11 गोल ध्यानचन्द के नाम दर्ज हैं।
ओलम्पिक और उसके क्वालीफाई मैच में 101 गोल करने और अन्य इण्टरनेशनल मैचों में 300 गोल करने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के खाते में है। उनके करिश्माई खेल का ही परिणाम था कि हॉलैण्ड में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं लगा है। जापान में उनकी हॉकी स्टिक का यह सच जानने के लिए परीक्षण किया गया था कि कहीं उसमें गोंद का प्रयोग तो नहीं हुआ है।
उनके प्रदर्शन के दम पर ही भारतीय हॉकी टीम ने तीन बार वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक, वर्ष 1932 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक एवं वर्ष 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। यह भारतीय हॉकी को उनका सबसे बड़ा योगदान है। ध्यानचन्द ने अपना अन्तिम मैच वर्ष 1948 में खेला तथा उसी वर्ष उन्होंने खेल जीवन से संन्यास ले लिया, उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मैचों में कुल 400 से अधिक गोल किए।
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पुरस्कार एवं सम्मान
ध्यानचन्द को वर्ष 1938 में ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे जमादार (नायब सूबेदार) बने। इसके बाद वे पदोन्नति पाते हुए क्रमश: सूबेदार, लेफ्टिनेण्ट और कैप्टन बनते चले गए, अन्ततः उन्हें मेजर बना दिया गया। उनकी उपलब्धियों देखते हुए उन्हें विभिन्न पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किया गया। वर्ष 1956 में 51 वर्ष की उम्र में जब भारतीय सेना के मेजर पद सेवानिवृत्त हुए, तो उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया।
उनके जन्मदिन 29 अगस्त को ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। खेलों से सम्बन्धित अर्जुन पुरस्कार, राजीव गाँधी खेल रत्न अवार्ड और गुरु द्रोणाचार्य अवार्ड प्रतिवर्ष इसी दिन प्रदान किए जाते हैं। उनको सम्मानित करने के लिए वियना के एक स्पोट्र्स क्लब उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए। दिखाया गया है। नई दिल्ली में एक स्टेडियम का नाम उनके नाम पर मेजर ध्यानचन्द स्टेडियम रखा गया है एवं भारतीय ओलम्पिक संघ ने उन्हें शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया है। खेल में उनके योगदान को देखते हुए लम्बे समय से ध्यानचन्द को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने की माँग की जा रही है।
वर्ष 1979 में जब ध्यानचन्द बीमार हुए, तो उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती करवाया गया। रे बचाने के सारे प्रयास विफल रहे और 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हो गया। झाँसी में उनका अन्तिम संस्कार किसी घाट पर न कर उस मैदान पर किया गया, जहाँ वे हाँकी खेला करते थे। अपने जीवनकाल में अभूतपूर्व उपलब्धियाँ प्राप्त आने के बाद भी इस महान् व्यक्तित्य ने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा है- “आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूँ।” हॉकी ही नहीं खेलों के इतिहास में भी ध्यानचन्द का नाम हमेशा अमर रहेगा।
मेजर ध्यानचंद पर निबंध/Major Dhyan Chand par nibandh/Essay on Major Dhyan Chand/Major Dhyan Chand video
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Dhyan Chand Essay in Hindi