बीसवी सदी की शुरुआत में जब वैज्ञानिक प्रगति अपने चरम पर थी, तब विश्व को अपने दर्शन से प्रभावित करने वाले महान आध्यात्मिक नेताओं में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन सर्वप्रमुख थे। उन्होंने कहा- “चिड़ियों की तरह हया में हुना और मछलियों की तरह पानी में तैरना सीखने के बाद, अब हमें मनुष्य की तरह जमीन पर चलना भी सीखना है।” इसी क्रम में मानवता की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा- “मानव का दानय बन जाना, उसकी पराजय है, मानव का महामानव होना, उसका चमत्कार और मानव का मानव होना उसकी विजय है।”
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डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर निबन्ध | Dr Sarvepalli Radhakrishnan Essay in Hindi
जीवन परिचय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 8 सितम्बर, 1888 को मद्रास (चेन्नई) शहर से लगभग 50 किमी दूर तमिलनाडु राज्य के तिरुतनी नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सर्वपल्ली बीरास्वामी तथा माता का नाम सिताम्मा था। इसके पूर्वजों का गाँव ‘सर्वपल्ली था, जिसके कारण उन्हें अपने नाम के आगे ‘सर्वपल्ली विरासत में मिला। उनका परिवार अत्यन्त धार्मिक था।
उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल, तिरुपति तथा वेल्लीर कॉलेज, वेल्लौर में प्राप्त की। वर्ष 1908 में उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया और यहाँ से बीए तथा एम ए की उपाधि प्राप्त की।
ये अपनी संस्कृति और कला से लगाव रखने वाले ऐसे महान आध्यात्मिक राजनेता में, जो सभी धमविलम्बियों के प्रति गहरा आदरभाव रखते थे। राधाकृष्णन ने अपने जीवनकाल में कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा ण्डल का नेतृत्व किया। 21 वर्ष की अल्पायु में ही वर्ष 1909 में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के जयापक नियुक्त हुए। बाद में उन्होंने मैसूर एवं कलकत्ता विश्वविद्यालयों में भी दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इसके बाद कुछ समय तक वे आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।
इसके अतिरिक्त, काशी विश्वविद्यालय में भी उन्होंने कुलपति के पद को सुशोभित किया। वर्ष 1939 में उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्म और आचार विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया गया। ये वर्ष 1948-49 में यूनेस्कों के एक्जीक्यूटिस बोर्ड के अध्यक्ष रहे। वर्ष 1950 में उन्हें रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया था। वर्ष 1952-60 की अवधि में ये भारत के उपराष्ट्रपति रहे। बाद में वे वर्ष 1962 में राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए और इस पद पर वर्ष 1967 तक बने रहे।
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साहित्यिक योगदान
राधाकृष्णन ने दर्शन और संस्कृति पर अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘दें फिलॉसफी ऑफ द उपनिषद्स’, ईस्ट एण्ड बेस्ट-सम रिफ्लेक्स’ ‘ईस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट’, ‘इण्डियन फिलॉसफी’, ‘एनः ऑफ लाइफ’ ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’ इत्यादि प्रमुख हैं। भारतीय संस्कृति, सत्य की खोज एवं समाज हिन्दी में अनुवादित उनकी लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
डॉ. राधाकृष्णन ने अपने जीवनकाल 150 पुस्तकों का लेखन तथा सम्पादन किया था। गीता का अनुवाद’ नामक कृति को उन्होंने बापू को समर्पित प्रथम पुस्तक का नाम था- द फिलॉसॉफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’।टाइम्स’ तथा ‘अभ्युदय’ का सम्पादन भी किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय पत्रकारिता को नया आयाम प्रदान करते हुए अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। सम्पादक की स्वतन्त्रता और लेखन की गरिमा के प्रबल समर्थक इस भारतीय मनीषी ने पत्रकारिता के साथ-साथ वकालत की पढाई भी की और इस क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। 1899 ई में मालवीयजी ने वकालत की परीक्षा पास की और हाइकोर्ट में प्रैक्टिस आरम्भ कर दी।
स्वाभिमानी मालवीयजी अपने नियमों और सिद्धान्तों के इतने पक्के थे कि किसी भी परिस्थिति में झूठे मुकदमों की पैरवी नहीं करते थे, परन्तु कुछ समय पश्चात् सामाजिक कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण बकालत छोड़ दी। परन्तु जब गोरखपुर के ऐतिहासिक चौरीचौरा काण्ड में 170 लोगों को फाँसी की सजा हुई तब उन्होंने वकालत छोड़ने के 20 वर्षों के अन्तराल के बाबजूद भी इलाहाबाद हाइकोर्ट में अद्भुत बहस की और 150 लोगों को फांसी से बचा लिया।
इस मुकदमे में मालवीयजी ने इतने प्रभावशाली ढंग से आरोपियों की पैरवी की कि उनसे प्रभावित होकर मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें अदालत में ही बधाई दे दी। इसके अतिरिक्त, मालवीयजी ने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन और बाल विवाह का विरोध भी किया।
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समाज तथा धर्म में योगदान
समाज-सुधार के क्षेत्र में काम करते हुए उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए भी कार्य किया। श्रीमद्भागवत और गीता के विख्यात व्याख्याकार के रूप में मालवीयजी की आध्यात्मिक ऊर्जा और बौद्धिक कौशल को सभी नमन करते हैं।
वह दक्षिणपन्थी हिन्दू महासभा के आरम्भिक नेताओं में से एक थे और उदात्वादी हिन्दुत्व के समर्थक थे। गंगा के प्रति मालवीयजी का प्रेम और श्रद्धा अत्यधिक थी। इसलिए जब अंग्रेज सरकार द्वारा गंगोत्री से निकली गंगा की धारा को अवरुद्ध करने की कोशिश की गई, तो उन्होंने गंगा महासभा की ओर से व्यापक सत्याग्रह अभियान चलाया। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा और उत्तराखण्ड में गंगा की धारा पर कोई भी बाँध या फैक्ट्री न बनाने का फैसला किया।
महामना ने अनेक रूपों में देश की सेवा की और अपने जीवन के अन्त तक किसी-न-किसी रूप में सक्रिय रहे, परन्तु बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की चर्चा किए बिना उनके योगदान का उल्लेख अधूरा है। मालवीयजी शिक्षा के बिना व्यक्ति के विकास को असम्भव मानते थे। उनका कहना था- “शिक्षा के बिना मनुष्य पशुतुल्य होता है।” देश के युवक-युवतियों को देश में ही उच्च गुणवत्ता की शिक्षा देने के उद्देश्य से उन्होंने एक विश्वविद्यालय की स्थापना का स्वप्न देखा और अपने इस स्वप्न को 4 फरवरी, 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास करके साकार किया।
वर्तमान समय में यह लगभग 30 हजार विद्यार्थियों और दो हजार प्रतिभाशाली अध्यापकों के साथ एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है। अपने आरम्भ काल से ही शिक्षा-संस्कृति और बौद्धिक विमर्श का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा वह विश्वविद्यालय आज देश-विदेश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में गिना जाता है।
शिक्षा में योगदान
मालवीयजी उच्च शिक्षा के आधुनिकतम विषयों, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं और पद्धतियों के साथ ही भारतीय ज्ञान परम्परा-बेद, शास्त्र, दर्शन, साहित्य और कला के अध्ययन के वैश्विक केन्द्र बिन्दु के रूप में इस विश्वविद्यालय को विकसित करना चाहते थे और ऐसा करने में वे सफल भी रहे। आज यहाँ इजीनियरिंग, अन्तरिक्ष प्रौद्योगिकी, आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से लेकर वेद, उपनिषद, वैदिक कर्मकाण्ड, साहित्य आदि सभी प्राचीन भारतीय धाराओं की पढ़ाई होती. है और देश-विदेश के विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करना एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं।
लगभग 4,060 एकड़ में फैले इस विशाल विश्वविद्यालय की स्थापना एक सरल कार्य नहीं था। सम्भवतः इस कठिनतम कार्य को महामना ही कर सकते थे। इस कार्य के लिए उन्होंने तत्कालीन समय में एक करोड़ रुपये की धनराशि जुटाई और इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि उन्होंने यह सारा धन दान और चन्दे के माध्यम से जुटाया था।
अपने हाथो से दान का एक भी पैसा न छूने की प्रतिज्ञा कर चुके मालवीयजी अपने गमछे (तौलिया) में विश्वविद्यालय के लिए धन-संग्रह करते रहे।लगभग 12-13 वर्षों तक देश के प्रत्येक दानी के यहाँ दस्तक दे-देकर, पैसा-पैसा जोड़कर यह करिश्मा का जिसे दूसरों ने असम्भव फरार दे दिया था। इसीलिए मिक्षारन और अनुदान के रूप में मिले पैसों से ज्ञान का इन्दर खड़ा करने वाले इस ‘महामना’ को ‘किंग ऑफ बैगर्स’ (भिखारियों का राजा) भी कहा गया, परन्तु इन्होंने अपने अन्य को पूरा किया। आज बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और मालवीयजी के बिना आधुनिक भारत की कल्पना करना भी कठिन है। मानवीयजी ने लगभग तीन दशक तक इसके कुलपति का पदभार भी संभाला और इसकी वैचारिक नींव को सुहृद किया।
महामना मदन मोहन मालवीय जी का नाम जितना बड़ा है, उससे कहीं वहीं इनकी उपलब्धियों और योगदान है, दिनको शब्दों में व्यक्त करना आसान काम नहीं है। इसीलिए कवियर स्वीन्द्रनाथ टैगोर ने इन्हें सबसे पहले महामना के जाम से पुकारा। बाद में महात्मा गाँधी ने भी इन्हें ‘महामना-अ मैन ऑफ लार्ज हार्ट कहकर सम्मानित किया। यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि भारतीयता का सच्चा प्रतिबिम्ब यह युग पुरुष आजीवन देशसेवा में समर्पित रहा, परन्तु अवासना भारत में साँस लेने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। 12 नवम्बर, 1946 को भारत के महान विभूति महामना का निधन हो गया।
महामना मालवीयजी का जीवन भारतीयों के लिए प्रेरणादायक है और भारत हमेशा उनका ऋणी रहेगा। मालवीयजी सम्मानित करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 25 दिसम्बर, 2014 को उनके 153वें जन्मदिन पर भारत रत्न से वास्तव में मालवीयजी को भारत रत्न देकर सरकार ने स्वयं और भारत रत्न को ही सम्मानित किया है, क्योंकि उनका जीवन-चरित्र भारत रत्न से भी अधिक सम्माननीय है।
यदि वास्तव में हमें इस ज्ञान के पुजारी को सम्मान और श्रद्धाजलि देनी है, तो हमे अपने देश में शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था में सुधार करना होगा। हमें समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चे के लिए समुचित शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी, ताकि राष्ट्र निर्माण में सभी बच्चे भागीदार बनें और थान का महामना मदन मोहन मालवीयजी का सपना साकार हो।
Dr Sarvepalli Radhakrishnan Essay in Hindi/डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर निबंध video
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Dr Sarvepalli Radhakrishnan Essay in Hindi