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trishna ka ant kahan jatak katha in hindi
बनारस के राजा देवदत्त के दो पुत्र थे। दोनों को महाराजा बहुत प्यार करते थे। समय आने पर अपने बड़े बेटे को उन्होंने युवराज घोषित किया। और छोटा बेटा, जो अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण था, उसे भावी सेनापति ।
समय बीतता गया और एक दिन महाराजा देवदत्त का निधन हो गया। पूर्व राजघोषणा के अनुसार मंत्रिमंडल व राज परिवार के सदस्यों ने बड़े राजकुमार को राजसिंहासन सौंपना चाहा तो उसने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वह दूसरी प्रवृत्ति का व्यक्ति होने के साथ अपने छोटे भाई से बहुत प्रेम करता था। वह सामान्य व सादा जीवन जीना चाहता था, अत: उसने यह अधिकार अपने अनुज को देने की घोषणा कर दी।
मंत्रियों ने समझाने की कोशिश की कि महाराज देवदत्त की इच्छा माननी चाहिए, किंतु वह नहीं माना। वस्तुतः उसे राजसत्ता से विरक्ति हो गई थी और वह स्वतंत्र जीवन जीना चाहता था। ऐसे में छोटे राजकुमार सुरव्रत का राज्याभिषेक कर राजा बना दिया गया।
आम आदमी की तरह स्वतंत्र जीवन जीने के लिए राजकुमार अनुव्रत • अपनी राजधानी छोड़ अपने राज्य में ही दूर दूसरे नगर में एक सेठ के पास साधारण सी नौकरी करने लगा, जहाँ उसने अपना परिचय छिपाए रखा, पर सत्य कहाँ छिप सकता है? किसी तरह से सेठ को उसकी हकीकत पता चल ही गई कि यह कोई साधारण व्यक्ति न होकर राज पुरुष है तो सेठ के व्यवहार में बदलाव आ गया और उनकी कोशिश होती कि वह नौकर से कोई काम न ले या कम काम लेना पड़े।
एक दिन अनु को पता चला कि राजकर्मचारी लगान बढ़ाने के लिए जमीनों को माप रहे हैं, जिस कारण सेठ परेशान है। इसे देख अनुवत ने अपने स्वामी की मदद करने के विषय में सोचा और उसने अपने भाई सुत को इसी विषय में एक पत्र लिखा, ‘मैं पिछले बहुत दिनों से सेठजी के यहाँ सुखपूर्वक रह रहा हूँ। मेरी इच्छा है कि तुम इस मठ का लगान माफ कर दो।
पत्र मिलते हो राजा सुरखत ने बड़े भाई की इच्छापूर्ति का आदेश जारी कर दिया और सेठ का लगान माफ हो गया। सेठ को अनुयतद्वारा की गई गुप्त मदद से बड़ी खुशी हुई और इस बात का लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए राजकुमार के दयालु स्वभाव की प्रशंसा करने लगा। फिर क्या था, कई लोग लगान माफी की अर्जियों को लेकर राजकुमार अनुव्रत के पास जा पहुंचे। कुमार दयालु तो था ही, उन सभी की लगान माफी की अपील राजा सुरत को कर दी।
जिसे पढ़कर छोटे भाई ने पूरे नगर के लोगों का लगान माफ कर दिया, इसके लिए चाहे उसे राजस्व का नुकसान भी हुआ। उसके बाद तो पूरे क्षेत्र के लोग अनुव्रत के भक्त हो गए और उसे ‘बड़ा राजा’ कहकर संबोधित करने लगे। उसकी सेवा में उपहार भेंट करते और इसी तरह चलते उस पूरे क्षेत्र में अनुवत की अखंड सत्ता कायम हो गई और वह सर्वसम्मति से वहाँ का राजा बन गया।
विधि की विडंबना कहिए कि स्वेच्छा से त्याग दिए गए राजसुख को फिर से पाकर वह खुशी से आनंदित होने लगा। मन कब बदल जाए कौन जाने अधिकार सत्ता जताने के लिए कुछ वर्ष बाद भाई को पत्र भेजा कि इस प्रांत पर अब मेरा राज्य है। सुरव्रत तो उसका भरत की तरह अनन्य भक्त था ही, चाहे वह राम न बन सका, उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मनुष्य की तृष्णा का अंत नहीं।
उसने अपनी सेनाओं का विस्तार करना शुरू किया और आस-पास के प्रांतों पर अधिकार करना शुरू किया तो छोटे भाई ने वहाँ भी उसकी सत्ता मान ली। अनुव्रत की जैसे-जैसे इच्छाएँ पूरी होती, उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती। उसकी पूरे राज्य का राजा बनने इच्छा हुई, किंतु उसे शक था कि कहीं छोटा भाई राज्य आसानी से न छोड़े। यह विचार करके बहुत से लोगों की भीड़ जुटा राज द्वार पर पहुंचकर छोटे भाई के पास संदेश भेजा, ‘राज दो या आकर युद्ध करो।”
छोटा भाई सुरखत सोच में पड़ गया कि युद्ध करने पर भाई की मृत्यु हुई तो कल बदनामी होगी और यदि समर्पण करता हूँ तो कायर माना जाऊंगा। फिर भी उसने बड़े भाई को उसकी राजगद्दी वापस देने के लिए मंत्रियों से सलाहकर उसे ससम्मान राज सिंहासन पर बैठा दिया। अनुव्रत बनारस का राजा बन गया। उसकी सभी लालसाएँ पूरी हो गईं, फिर भी तृष्णा समाप्त नहीं हुई। अपना राज्य बढ़ाने की नई लालसा जाग उठी।
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पड़ोस के राज्यों को हथियाना शुरू कर दिया। किसी दूसरे का ऐश्वर्य उसे सहन ही न होता। राजा इंद्र को उसकी बढ़ती तृष्णा से दुःख हुआ तो वे एक ब्रह्मचारी के रूप में उसके पास गए तथा उसे अकेले में एक गुप्त सूचना देने के लिए एकांत में जाकर बोले, ‘राजन, मैंने तीन ऐसे नगर देने हैं, जहाँ अकृत धन-संपत्ति है। घर-घर में सोना बरसता है, आप उन नगरों को अपने अधिकार में कर लें।
सुनते ही राजा लोभ में अंधा हो गया और उन नगरों पर चढ़ाई करने को बेताब हो उठा। ब्रह्मचारी यह बताकर वहाँ से चला गया। राजा ने तुरत मंत्रियों को बुला, इन तीनों नगरों के बारे में बताया और जल्दी से उन पर चढ़ाई करने के लिए सेना तैयार करने का आदेश दिया, ‘ शीघ्रातिशीघ्र इन नगरों को जीतना चाहता हूँ।”
मंत्री ने पूछा, ‘महाराज, वे नगर कहाँ हैं ?’ राजा हैरानी से बोला, ‘यह तो मुझे पता नहीं, उस ब्रह्मचारी से पूछो, जो अभी-अभी मुझे बताकर गया है। यहीं-कहीं बाहर होगा, उसे ढूँढ लाओ।” मंत्री ने स्वयं जाकर ब्रह्मचारी को ढूँढ़ा, किंतु वापस आकर राजा को बताया कि बाहर तो दूर-दूर तक कोई नहीं है।
राजा को लगा कि जैसे उसका सबकुछ छिन गया हो। छटपटाते हुए कहने लगा, ‘हाय! अब क्या होगा। उन नगरों के बारे में सुनते ही मैं इतना उत्तेजित हो गया था कि न तो मैंने उस ब्रह्मचारी का कोई सम्मान किया, न ही नगरों का पता-ठिकाना पूछा। हे ईश्वर! तीन-तीन स्वर्ण नगर मेरे हाथों से गए। अब भी तो कैसे, उनका पता तक नहीं पूछा कैसे मिलेंगे अब ये ?’ • राजा इसी सोच में चिंतित रहने लगा व उन नगरों की याद आते ही दिल में दर्द की हूक उठने लगी।
आंतरिक दुःख से अतिसार हो गया। हकीमों का इलाज बेअसर, उसका रोग बढ़ता ही गया। हर समय तीन नगरों को हथियाने की चिंता घेरे रहती।
एक दिन बोधिसत्व तक्षशिला से वैध की दीक्षा लेकर आए। वैद्य ने राजा की असाध्य बीमारी का उपचार करने की इच्छा से राजा से भेंट की। राजा बहुत दुःखी था, पर बड़े-बड़े वैद्यों के इलाज के बाद रोग ठीक न होने पर किसी अनाड़ी से अपना इलाज करवाने की सोच भी नहीं सकता था। इस कष्ट से छुटकारा तो चाहता ही था, इसलिए नए चिकित्सक को बुलाकर कहने लगा, ‘मेरी बीमारी को सभी वैद्यों ने असाध्य बताया है। तुम व्यर्थ को कोशिश करने आए हो।’
बोधिसत्व ने धैर्यपूर्वक कहा, ‘महाराज, सही प्रयत्न करने से असाध्य रोग भी सही हो जाते हैं। आप कृपया यह बताएँ कि इस रोग की शुरुआत कब और कैसे हुई ?’
पीड़ा से कराहते राजा ने कहा, ‘अनाड़ी वैद्य, रोग की कहानी सुनकर क्या करोगे, कोई दवा है तो दे दो।” बोधिसत्व बोला, ‘रोग की पूरी जानकारी होने पर ही अचूक दवा दी जा सकती है। रोग का मूल पता चलने पर ही उसे निर्मूल समाप्त किया जा सकता है।’
इस पर राजा ने तीनों नगरों के बारे में पूरी बात सविस्तार बता दी और अंत में बोला, ‘बस उसी से मेरे दिल को ऐसा धक्का लगा कि मैं पूरी तर टूट गया। हर समय उसी नुकसान के बारे में सोच-सोचकर परेशान रहता इसका मुझे इतना दुःख है कि मैं बता नहीं सकता।’
पूरी व्यथा-कथा सुनकर बोधिसत्व बोले, ‘महाराज, एक बात बताइए चिंता करने से क्या सभी नगर मिल जाएंगे ?”
‘नहीं वैद्यजी, जो गया सो, अब कहाँ मिलेगा? पूरी गलती मेरी ही थी। जो न तो ब्रह्मचारी का सत्कार किया, न ही नगरों के बारे में पूछा। यदि पता होता तो मैं नगरों को जीत लेता।’
बोधिसत्व बोले, ‘जब जीते ही नहीं तो बेकार में उनके लिए क्यों परेशान होते हैं? उनके अतिरिक्त भी तो आप के पास धन-वैभव की कोई कमी नहीं है, उसे भोगने की बजाय आप जो नहीं मिला, उसकी चिंता में बीमार हो रहे हैं। आवश्यकता से अधिक वैभव की लालसा न कीजिए। एक मनुष्य की आवश्यकता क्या है, एक विस्तर काफी होता है, फिर चार बिस्तरों की क्या जरूरत है।
वह चार बिस्तरों पर तो एक साथ नहीं सोता, फिर एक को पाकर चार की लालसा क्यों, जो आपके पास है, वह काफी है, उसी को भोगिए। अब और नगरों को लेकर क्या करेंगे? वे आप के लिए फालतू होंगे और फालतू चीजों के लिए मूल्यवान जीवन नष्ट करना मूर्खता है। तृष्णा त्यागकर संतोष अपनाइए।”
राजा को उसकी बात समझ में आने लगी तो बोला, “अच्छा यह सब ठीक है, अब कुछ दवा तो दीजिए। मेरे पेट की कोई दवा देगें तो में जल्दी रोगमुक्त हो जाऊँ।”
बोधिसत्व बोले, ‘यह रोग पेट का नहीं, मन का है, जिसके लिए मैंने आपको सर्वगुणकारी ज्ञानोषधि दे दी है। इसी से लाभ होगा। चिंता की दुर्वासना को निकाल फेंकिए, आप जल्दी ही स्वस्थ हो जाएँगे।’
इतना कहकर बोधिसत्व ने राजा से विदा ली और राजा अनुव्रत ने बातों को भुला पराए धन की तृष्णा छोड़ दी। मन स्वस्थ और शांत हो गया और कुछ ही दिनों में वह बिना दवाई के रोगमुक्त हो गया।
तृष्णा अंतहीन होती है, एक के बाद दूसरी आ ही जाती है, प्राणी इन्हीं की तृप्ति में जीवन गँवा बैठता है। अनावश्यक इच्छाओं का दमन करके ही जीवन में सुख, शांति और आनंद का अनुभव किया जा सकता है।
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