तेंतर – मुंशी प्रेमचंद्र की अमर कहानियाँ | tentar Munshi Premchand ki kahani in Hindi

दोस्तों मुंशी प्रेमचंद munshi premchand ने बहुत सी प्रेरणादायक कहानियां लिखी हैं, जिन्होने देश की कुरुतियों को उजागर किया है। हिंदी साहित्य में उन्होने अपनी एक अलग छाप बनाई है उन्हें हिंदी साहित्य का स्तंभ कहा जाता है उनकी एक कहानी तेंतर के बारे में आप इस लेख में पढ़ेंगे।

प्रेमचंद की कहानी – ‘ तेंतर ‘ | Famous Story of Munshi Premchand – Podcast of ‘Tentar’

tentar Munshi Premchand ki kahani

तेंतर – मुंशी प्रेमचंद्र की अमर कहानियाँ | tentar Munshi Premchand ki kahani in Hindi

आखिर वहीं हुआ जिसकी आशंका थी; जिसकी चिंता में घर के सभी लोग विशेषता प्रसूता पड़ी हुई थी। तीन पुत्रों के पश्चात कन्या का जन्म हुआ माता शोर में सूख गईं, पिता बाहर आंगन में सूख गए और पिता की वृद्धा माता सौर द्वार पर सूख गईं। अनरथ, महाअनरथ; भगवान ही कुशल करें तो हो? यहाँ पुत्री नहीं राक्षसी है। इस अभागिनी को इसी घर में आना था; आना ही था तो कुछ दिन पहले क्यों न आई। भगवान सातवें शत्रु के घर भीतेंतरका जन्म ना दे।

पिता का नाम था पंडित दामोदर दत्त, शिक्षित आदमी थे। शिक्षा विभाग में कई नौकर भी थे; मगर इस संस्कार को कैसे मिटा देते जो परंपरा से हृदय में जमा हुआ था, कि तीसरे बेटे की पीठ पर होने वाली कन्या अभागिनी होती है या पिता को लेती है या माता को या अपने को। उनकी वृद्धा माता लगी नवजात कन्या को पानी पी पीकर कोसने, कलमुंही है, ना जाने क्या करने आई है यहाँ। किसी भांजे के घर जाती तो उसके दिन फिर जाते।

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दामोदर दत् दिल में तो घबराए हुए थे, पर माता को समझाने लगे अम्मा, भगवान की जो इच्छा होती है, वही होता है। ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल ही होगा; गानेवालियों को बुला लो, नहीं लोग कहेंगे, तीन बेटे हुए तो कैसे फूली फिरती थी, एक बेटी हो गई तो घर में कोहराम मच गया।

माता- अरे बेटा, तुम क्या जानो इन बातों को, मेरे सिर्फ दो बीत चुकी है, प्राण नहो में समाया हुआ है।तेंतर ही के जन्म से तुम्हारे दादा का देहांत हुआ। तभी सेतेंतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है।

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दामोदर- इस कष्ट के निवारण का भी कोई उपाय होगा?

माता- उपाय बताने को तो बहुत है, पंडित जी से पूछो तो कोई न कोई उपाय बता देंगे; पर इससे कुछ होता नहीं। मैने कौन से अनुष्ठान नहीं किए, पर पंडितजी की तो मुठिया गर्म हुई, यहाँ जो होना था वो हो ही गया।जजमान मरे या जिए उनकी बला से, उनकी दक्षिणा मिलनी चाहिए। लड़की दुबली पतली भी नहीं है। तीनों लड़कों से हष्ट पुष्ट है, बड़ी बड़ी आंखें हैं, पतले पतले लाल होंठ है, जैसे गुलाब की पंखुड़ी। गोरा चिट्टा रंग है, लंबी सी नाक है।नहलाते समय रोई भी नहीं, टुकुर टुकुर ताकते रही, यह सब लक्षण कुछ अच्छे थोड़ी ही है।

दामोदर के तीनो लड़के सावले थे, कुछ विशेष रूपवान भी न थे। लड़की के रूप का बखान सुनकर उनका चित कुछ प्रसन्न हुआ। बोले- अम्मा जी, तुम भगवान का नाम लेकर गाने वालों को बुला भेजो, गाना बजाना होने दो। भाग्य में जो कुछ है, वहाँ तो होगा ही।

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माता- जी तो करता नहीं, करू क्या?

दामोदर- गाना न होने से कष्ट का निवारण तो होगा नहीं, हो जाएगा? अगर इतने सस्ते जान छूटे तो न कराऊँ गाना।

माता- बुला लेती हूँ बेटा, जो कुछ होना था वह तो हो गया।

इतने में दाई ने पुकारकर कहा- बहू जी कहती है गाना वाना कराने का काम नहीं है।

माता- भला उनसे कहो चुप बैठे रहे, बाहर निकलकर मनमानी करेंगी, 12 ही दिन है, बहुत दिन नहीं है; बहुत इतराती फिरती थी यहना करूँगी, वह न करूँगी, देवी क्या है, देवता क्या है, मर्दों की बातें सुनकर वही रट लगाने लगती थी, तो अब चुप्पी से बैठती क्यों नहीं? मेमसाहब तोतेंतर को अशुभ नहीं मानती, और सब बातों में मेमसाहब की बराबर करती है तो इस बात में भी करे।

यह कहकर माता ने नाइन को भेजा कि जाकर गाने वालों को बुला लो, पड़ोस में भी कहती जाना।

सवेरा होते ही बड़ा लड़का सोकर उठा और आँखें मलता हुआ जाकर दादी से पूछने लगा- बड़ी अम्मा, कल अम्मा को क्या हुआ?

माता- लड़की हुई हैं।

बालक खुशी से उछल कर बोला ओहो, ज़रा मुझे दो दादी जी।

माता- अरे क्यों इतना शोर मचा रहा है, पागल हो गया है क्या?

लड़के की उत्सुकता नामानी। द्वार पर जाकर खड़ा हो गया और बोला- अम्मा, ज़रा बच्ची को मुझे दिखा दो।

दाई ने कहा- बच्ची अभी सोती है।

बालक- ज़रा दिखा दो, गोद में लेकर।

दाई ने कन्या उसे दिखा दी तो वह दौड़ता हुआ अपने छोटे भाइयों के पास पहुंचा और उन्हें उठा उठाकर खुशखबरी सुनाई।

एक बोला- छोटी सी होगी।

बड़ा- बिलकुल छोटी सी, बस जैसी बड़ी गुड़िया, ऐसी गोरी है कि क्या किसी साहब की लड़की होगी। यह लड़की मैं लूँगा।

सबसे छोटा बोला- हमको भी दिखा दो।

तीनों मिलकर लड़की को देखने आए और वहाँ से उछलते कूदते बाहर आए।

बड़ा- देखा कैसी है।

बीच वाला- कैसी आँखें बंद की पड़ी थी।

छोटा- इसे हमें तो देना।

बड़ा- खूब द्वार पर बारात आएगी, हाथी, घोड़े, बाजे आतिशबाजी।

दोनों भाई ऐसे मग्न हो रहे थे मानो वह मनोहर दृश्य आँखों के सामने है, उनकी सरल नेत्र मनोल्लास से चमक रहे थे।

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छठी भी हुई, बारही भी हुई, गाना बजाना, खाना खिलाना, देना दिलाना सब कुछ हुआ; पर रस्म पूरी करने के लिए, दिल से नहीं, खुशी से नहीं। लड़की दिन पर दिन दुर्बल और अस्वस्थ होती जाती थी। माँ उसे दोनों वक्त अफीम खिला देती और बालिका दिन और रात नशे में बेहोश पड़ी रहती। ज़रा भी नशा उतरता तो भूख सेरोने लगती। माँ कुछ ऊपरी दूध पिलाकर अफीम खिला देती।

आश्चर्य की बात तो यह थी कि अबकी उसकी छाती में दूध भी नहीं उतरा था। यू भी उसे दूध देर से उतरता था; पर लड़कों की बैर उसे नाना प्रकार की दूध वर्धक औषधियाँ खिलाई जाती, बार बार शिशु को छाती से लगाया जाता, यहाँ तक कि दूध उतर ही आता था; पर अब की यह आ योजनाएं न की गई।

फूल सी बच्चीपरेशान हो जाती थी। माँ तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हाँ, नाइन कभी चुटकियां बजाकर चूमा करती तो शिशु के मुख पर ऐसी दयनीय, ऐसी करुण वेदना अंकित दिखाई देती है कि वह आंखें पोंछती हुई चली जाती थी। बहुत से कुछ कहने सुनने का साहस न पड़ता। बड़ा लड़का सिद्धू बार बार कहता-अम्मा, बच्ची को दो बाहर से खिलाऊ। परमा उसे झिड़क देती थी।

तीन चार महीने हो गए। दामोदर दत्त रात को पानी पीने उठे तो देखा कि बालिका जाग रही है। सामने ताक पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था, लड़की टकटकी बांधे उसी दीपक की ओरदेखती थी और अपना अंगूठा चूसने मेँ मग्न थी। उसका मुख मुरझाया हुआ था, पर वह न रोती थी और ना हाथ पैर फेंकती थी, बस अंगूठा पीने में ऐसी मगनती मानो उसे सुधा रस भरा हुआ है।

वहाँ माता के  की ओर मुँह भी नहीं फैलती थी। बाबू साहब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जन्म लेने में क्या दोष है? मुझपर या इसकी माता पर जो भी पड़े, उसमें इसका क्या अपराध? हम कितनी निर्दयता कर रहे हैं की कुछ कल्पित अनिष्ट के कारण उसका इतना तिरस्कार कर रहे हैं। माना कि कुछ अमंगल हो भी जाए तो क्या उसके भय से इस के प्राण ले लिए जाएंगे? अगर अपराधी है तो मेरा प्रारब्ध है।

इस नन्हे से बच्चे के प्रति हमारी कठोरता क्या ईश्वर को अच्छी लगती होगी? उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और उसका मुख्य झूमने लगे। लड़की को कदाचित पहली बार सच्चे स्नेह का ज्ञान हुआ। वहाँ हाथ पैर उछालकर गु गो करने लगी और दीपक की ओर हाथ फैलाने लगी। उसे जीवन ज्योति सी मिल गई।

प्रातःकाल दामोदर दत्त ने लड़की को गोद में उठाकर लिया और बाहर लाए। स्त्री ने बार बार कहा- उसे पड़ी रहने दो, ऐसी कौन सी बड़ी सुन्दर है, अब भाग नहीं रात दिन तो प्राण खाती रहती है, मर भी नहीं जाती की जांच छूट जाए; किंतु दामोदर दत्त ने नमाना। उसे बाहर लाए और अपने बच्चों के साथ बैठकर खेलने लगे। उनके मकान के सामने थोड़ी सी जमीन पड़ी हुई थी।

पड़ोस के किसी आदमी की एक बकरी उसमें आकर घास खाया करती थीं। इस समय भी वह घास खा रही थी। बाबू साहब ने बड़े लड़के से कहा- सिद्धु, ज़रा उस बकरी को पकड़ो, तो इसे दूध पिलाएं शायद भूखी है बेचारी। देखो, तुम्हारी नन्ही सी बहन है न? इसे रोज़ हवा में खिलाया करो।

सिद्धू को दिल्लगी हाथ आई। उसका छोटा भाई भी दौड़ा। दोनों ने घेरकर बकरी को पकड़ा और उसका कान पकड़कर सामने लाएँ। पिता ने शिशु का मुँह बकरी के गठन में लगा दिया लड़की जो बुलवाने लगी और एक क्षण में दूध की धार उसके मुँह में जाने लगीं, मानो टिमटिमाते दीपक में तेल पड़ जाए। लड़की का मुँह खिल उठा। आज शायद पहली बार उसकी सुधार तृप्त हुई थी। पिता की गोद में हुमक हुमक खेलने लगी। लड़कों ने भी उसे खूब सजाया खुदाया।

उस दिन से सिद्धू को मनोरंजन का एक नया विषय मिल गया। बालकों को बच्चों से बहुत प्रेम होता है। अगर किसी घोंसलें में चिड़िया का बच्चा देख पाए तो बार बार वहाँ जाएंगे। देखेंगे कि माता बच्चों को कैसे दाना चुगआती है ? बच्चा कैसे मुँह खोलता है, कैसे दाना लेता है। आपस में बड़े गंभीर भाव से उसकी चर्चा करेंगे, अपने अन्य साथियों को लेकर जाकर उसे दिखाएंगे।

सिद्धू ताक में लगा रहा, जो ही माता भोजन बनाने या स्नान करने जाती तुरंत बच्ची को लेकर आता और बकरी को पकड़ कर उसके ठंड से शिशु का मुहर लगा देता, कभी दिन में 2-2, 3-3 बार पिलाता। बकरी को भूसी चौकर खिलाकर ऐसे पर्चा लिया कि वह स्वयं चौ करके लोग में चली आती और दूध देकर चली जाती। इस भाँति कोई एक महीना गुजर गया, लड़की हष्ट पुष्ट हो गई, मुख्य पुरुष के समान विकसित हो गया। आंखें जग उठी, शिशुकाल की सरल आभा मन को हरने लगी।

माता उसे देख देखकर चकित होती थी। किसी से कुछ कहे तो ना सकती; पर दिल मेँ उसे आशंका होती है कि अब वह मरने को नहीं, हमें लोगों के सिर जाएगी। कदाचित ईश्वर इसकी रक्षा कर रहे हैं, जब भी तो दिन पर दिन निखरती आती है, नहीं अब तक ईश्वर के घर पहुँच गई होती।

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मगर दादी माता से कहीं ज्यादा चिंतित थी। उसे भ्रम होने लगा कि वह बच्ची को खूब दूध पीला रही है, सांप को पाल रही है। शिशु की ओर आंख उठाकर भी न देखती। यहाँ तक कि 1 दिन कह बैठी लड़की का बड़ा छओह करती हो? हाँ भाई, माँ हो की नहीं, तुम ना छोह करोगी तो कौन करेगा?

अम्मा जी, ईश्वर जानते हैं जो मैं इसे दूध पिलाती हूँ?’

अरे तो मैं मना थोड़े ही करती हूँ, मुझे क्या गरज पड़ी है कि मुफ्त में अपने ऊपर पापलू, कुछ मेरे सिर्फ तो जायेंगे नहीं।

अब आपको विश्वास हीं ना आये तो कोई क्या करें?’

मुझे पागल समझती हो, वह हवा पी पीकर ऐसी हो रही है?’

भगवान जाने अम्मा, मुझे तो आप अचरज होता है।

बहू ने बहुत निर्दोषिता जताई; किंतु वृद्धा सास को विश्वास न आया। उसने समझा, यह मेरी शंका को निर्मूल समझती है, मानो मुझे इस बच्ची से बैर है। उसके मन में यह भाव अंकुरित होने लगा कि इसे कुछ हो जाए तब यह समझे कि मैं झूठ नहीं कहती थी।

वह जिन प्राणियों को अपने प्राणों से भी प्रिय समझती थी, उन्हीं लोगों की अमंगल कामना करने लगी, केवल इसलिए कि मेरी शंकाएं सख्त हो जाए; पर इतना अवश्य चाहती थीं कि किसी बहाने से मैं चेता दो कि देखा, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का फल है। की ओर से जो जो यहद्वेषभाव प्रकट होता था, बहू का कन्या के प्रति स्नेह बढ़ता था। ईश्वर से मनाती रहती थी कि किसी भांति 1 साल कुशल से कट जाता तो इनसे पूछती। कुछ लड़की का भोला भाला चेहरा, कुछ अपने पति का प्रेम वात्सल्य देखकर भी उसे प्रोत्साहना मिलता था।

विचित्र दशा हो रही थी, ना दिल खोलकर प्यार ही कर सकती थी, न संपूर्ण वीति से निर्देश होते ही बनता था। नहँसते बनता था ना रोते।

इस भाँति दो महीने गुजर गए और कोई अनिष्ट ना हुआ। तब तो वृद्धा सास के पेट में चूहे दौड़ने लगे। बहू को दो 4 दिन बुखार भी नहीं आ जाता कि मेरी शंका की मर्यादा रह जाए, पुत्र भी किसी दिन पैर गाडी पर से नहीं गिर पड़ता, न बहु के मायके ही से किसी के स्वर्गवास की सुनवाई आती है। 1 दिन दामोदर दत् ने खुले तौर पर कह दिया कि अम्मा, यह सब ढकोसले है, लड़कियां क्या दुनिया में होती नहीं, तो सब के सब माँ बाप मर ही जाते हैं? अंत मेँ उसने अपनी शंकाओं को यथार्थ सिद्ध करने की एक तरकीब सोच निकाली।

1 दिन दामोदर दत् स्कूल से आए तो देखा कि अम्मा जी घाट पर अचेत पड़ी हुई है, स्त्री अंगीठी में आग रखें उनकी छाती सेक रही है और कोठरी के द्वार और खिड़कियां बंद है। घबराकर कहा- अम्मा जी, क्या दशा है?

स्त्री- दोपहर ही से कलेजे में एक शूल उठ रहा है, तड़प रही है।

दामोदर- मैं जाकर डॉक्टर साहब को बुला लाओ न; देर करने से शायद रोग बढ़ जाए। अम्मा जी, अम्मा जी, कैसी तबियत है?

माता आंखें खोलकर कराहते हुए बोली- बेटा, तुम आ गए?

अब ना बचूंगी, हे भगवान, अब ना बचूंगी। जैसे कोई कलेजे मेँ बरछी सुबह रहा हो। ऐसी पीड़ा कभी नहीं हुई थी। इतनी उम्र बीत गई, ऐसी पीड़ा नहीं हुई।

स्त्री- यह छोकरी न जाने किस मनहूस घड़ी में पैदा हुई।

सास- बेटा, सब भगवान करते हैं, यह बेचारी क्या जाने; देखो मैं मर जाऊं तो उसे कष्ट मत देना। अच्छा हुआ, मेरे सर आई। किसी के सिर तो जाती ही, मेरे ही सिर सही। हे भगवान, अब ना बचूंगी। दामोदर- जाकर डॉक्टर को बुला लाओ? अभी लौटा आता हूँ।

माताजी को अपनी बात की मर्यादा निभानी थी, रुपये न खर्च करने थे, बोली- नहीं बेटा, डॉक्टर के पास जाकर क्या करोगे? अरे, वहाँ कोई ईश्वर है। डॉ अमृत पीला देगा? 10- 20 वह भी ले जायेंगे; डॉक्टर से कुछ न होगा। बेटा, तुम कपड़े उतारो, मेरे पास बैठकर भागवत पढ़ो। अबना बचूंगी, हे राम;

दामोदर-तेंतर बुरी चीज़ है, मैं समझता थाकि ढकोसला ही ढकोसला है।

स्त्री- इसी से मैं उसे कभी मुँह नहीं लगाती थी।

माता- बेटा, बच्चों को आराम से रखना, भगवान तुम लोगों को सुखी रखे। अच्छा हुआ मेरे ही सिर गई, तुम लोगों के सामने मेरा परलोक हो जाएगा। कहीं किसी दूसरे के सिर जाती तो क्या होता राम; भगवान ने मेरी विनती सुन ली।

दामोदर दत्त को निश्चय हो गया कि अब अम्मा न बचेगी। बड़ा दुख हुआ। उनके मन की बात होती तो वह माँ के बदले तेंतर को ना स्वीकार करते। जिसे जननी ने जन्म दिया, नाना प्रकार के कष्ट झेलकर उनका पालन पोषण किया, उनकी शिक्षा का प्रबंध किया, उसके सामने एक दूधमुही बच्ची का क्या मूल्य था, जिसके हाथ का एक गिलास पानी भी वह न जानते थे। शोकातुर को कपड़े उतारे और माँ के सिरहाने बैठकर भागवत की कथा सुनाने लगे।

रात को बहुत भोजन बनाने चली तो सास से बोली- अम्मा जी, तुम्हारे लिए थोड़ा सा साबूदाना छोड़ दूं?

माता ने व्यंग करके कहा- बेटी, अन्न बिना ना मारो, भला साबूदाना मुझसे खाया जाएगा; जाओ, थोड़ी पूरियाँ छान लो। पड़े पड़े जो कुछ इच्छा होगी, खा लुंगी, कचोरिया भी बना लेना। मरती हूँ तो भोजन को तरस तरस क्यों मरूँ? थोड़ी मलाई भी मंगवा लेना। फिर थोड़े खाने आउंगी बेटी। थोड़े से केले मंगवा लेना, कलेजे के दर्द में केले खाने से आराम होता है।

भोजन के समय पीड़ा शांत हो गई; लेकिन आधे घंटे के बाद फिर जोरसे होने लगी। आधीरात के समय कहीं जाकर उनकी आंख लगी। एक सप्ताह तक उनकी यही दशा रही, दिनभर पड़ी कराह करती, बस भोजन के समय ज़रा वेदना कम हो जाती। दामोदर दत्त रहने बैठे पंखा झलते और मातावियोग सेशोक से रोते। घर की मेहरी ने मोहल्ले भर में यह खबर फैला दी, पड़ोसीदेखने आईं तो सारा इलजाम बालिका के सिर गया।

एक ने कहा- यह तो कहो बड़ी कुशल हुई कि बुढि़या के सिर गई; नहीं तो तेतर माँ बाप दो में से एक को लेकर तभी शांत होती है। भगवान न करे कि किसी के घर तेतर का जन्म हो।

दूसरी बोली- मेरे तो तेतर का नाम सुनते ही रोएँ खड़े हो जाते हैं।

एक सप्ताह के बाद वृद्धा का कष्ट निवारण हुआ, मरने में कोई कसर न थी, वहाँ तो कहोपूर्वजों का पुण्य प्रताप था। ब्राह्मणों को गोदान दिया गया। दुर्गा पाठ हुआ, तब कहीं जाकर संकट घटा।

मेरा नाम सविता मित्तल है। मैं एक लेखक (content writer) हूँ। मेैं हिंदी और अंग्रेजी भाषा मे लिखने के साथ-साथ एक एसईओ (SEO) के पद पर भी काम करती हूँ। मैंने अभी तक कई विषयों पर आर्टिकल लिखे हैं जैसे- स्किन केयर, हेयर केयर, योगा । मुझे लिखना बहुत पसंद हैं।

1 thought on “तेंतर – मुंशी प्रेमचंद्र की अमर कहानियाँ | tentar Munshi Premchand ki kahani in Hindi”

  1. Beautiful short story by Munshi Premchand. Depicted so beautifully social evils ,customs prevalent in society in those times . It is heart touching story.

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