आयुर्वेद एक भारतीय चिकित्सा विज्ञान है जिसकी उत्पत्ती तक़रीबन ५००० साल पहले हुई और जिसे दुनिया का सबसे प्राचीन चिकित्सा विज्ञान माना जाता है। आयुर्वेद ने हमेशा व्याधि के इलाज से ज्यादा उसे टालने के लिए सही आहार तथा जीवनशैली का पालन करने पर ध्यान दिया है। ऋतुओ के बदलने से हमारे आसपास के वातावरण में भी कई बदलाव आते है जिसकी सीधी असर हमारे स्वस्थ्य पर होती है। आसपास के वातावरण के साथ जीवनशैली में भी बदलाव अनिवार्य है अन्यथा आयुर्वेदानुसार हमारे शरीर में दोष वैषम्य की वजह से कई रोगों की उत्पत्ति सकती है। आयुर्वेद चिकित्सा में भी ऋतुचर्या का अधिक महत्व है।
क्योंकि उत्तरजीवन के लिए जीवनशैली में बदलाव अनिवार्य है, ऋतुचर्या का ज्ञान महत्वपूर्ण बनता है। लोग ऋतुअनुसार पथ्य आहार विहार, वस्त्र तथा अन्य जीवनशैली में बदलाव के बारे मे परिचित नहीं है, जिसकी वजह से उनकी शारीरिक समस्थिति अव्यवस्थित हो जाती है जिसके परिणामानुसार मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप जैसे कई रोगों की उत्पत्ति होती है। जीवनशैली बीमारियाँ वातावरण तथा शरीर के अनुचित संबंध से जन्म लेती है। यह जीवनशैली बीमारियाँ शीघ्र नहीं होती तथा इनका विकास बहुत धीरे धीरे होता है और उनका इलाज बहुत मुश्किल होता है। आयुर्वेद की अधिकतम संहिताओं में ऋतुचर्या का वर्णन है।
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आयुर्वेद अनुसार ऋतुओ का वर्गीकरण
आयुर्वेद में सूर्य की गति के अनुसार वर्ष को दो भागों (आयण) में विभाजित किया है जिसे उत्तरायण और दक्षिणायन कहते है। हर एक में ३ ऋतुए होती है तथा १ साल में कुल मिलाकर ६ ऋतुएँ होती है, जैसे की उत्तरायण में शिशिर, वसंत और ग्रीष्म तथा दक्षिणायन में वर्षा, शरद और हेमंत। हर एक ऋतु २ माह लंबी होती है। क्योंकि आयुर्वेद की उत्पत्ति भारत में हुई, यह सब ऋतुएँ आमतौर पर भारत में ही देखने को मिलती है।
उत्तरायण और उसका प्रभाव
उत्तरायण सूर्य की गति को उत्तर दिशा की और दर्शाता है। इस दौरान सूरज की रोशनी तथा हवाएँ तेज हो जाती है। सूरज इंसान की शक्तिओं तथा धरती की ठंडक को छीन लेता है। आयुर्वेद के अनुसार इस दौरान तिक्त (कड़वा), कषाय (तुरा) और कटु (तीखा) रस (स्वाद) प्रबल रहते है, जो की शरीर को सोख देते है और बल को घटा देते है। इसे आदानकाल भी कहा जाता है। यह काल माघ महीने से लेकर आषाढ़ महीने तक चलता है।
दक्षिणायन और उसका प्रभाव
दक्षिणायन सूर्य की गति को दक्षिण दिशा की और दर्शाता है। इस दौरान हवाएँ ज्यादा सुखी नहीं होती और चंद्र सूरज से ज्यादा ताक़तवर बन जाता है। बादलों, वर्षा और ठंडी हवाओं की वजह से धरती ठंडी हो जाती है। आयुर्वेद के अनुसार वातावरण में चिकनेपन की वजह से आम्ल (खट्टा), लवण (खारा) और मधुर (मीठा) रस (स्वाद) प्रबल होता है, जिसकी वजह से इंसान का बल बढ़ता है। इसे विसर्गकाल भी कहा जाता है। यह काल श्रावण महीने से लेकर पौष महीने तक चलता है।
आयुर्वेद अनुसार अलग अलग ऋतु में पथ्य आहार विहार:
शिशिर ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य जनवरी से लेकर मध्य मार्च तक के समय काल को शिशिर कहा जाता है जिसे अंग्रेजी में विंटर भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान वातावरण ठंडी हवाओं के साथ ठंडा रहता है। इस ऋतु दरम्यान तिक्त रस (कड़वा स्वाद) तथा आकाश महाभूत प्रबल होता है। आयुर्वेद अनुसार इस ऋतु में इंसान की शक्ति कमज़ोर हो जाती है तथा कफ दोष का संचय होता है एवं अग्नि बढ़ जाती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार शिशिर ऋतु में ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए जिसमे आम्ल रस (खट्टा स्वाद) प्रबल हो। अनाज, दाल, गेहू के आटे से बनी चीज़ वस्तुएँ, नए चावल, मकइ आदि का सेवन करना चाहिए। अद्रक, लहसुन, हरीतकी, पिप्पली, गन्ने, दूध तथा दूध की वस्तुओ का उपयोग आहार में करना चाहिए।
कटु (तीखा), तिक्त (कड़वा) और कषाय (तुरा) रस (स्वाद) वाले आहार का त्याग करना चाहिए। लघु (हलके) और शीत (ठंडे) खोराक का भी त्याग करना चाहिए।
पथ्य जीवनशैली: तेल / पाउडर से मालिश, गुनगुने पानी से स्नान, गरम कपडे और पर्याप्त सूर्य प्रकाश लेना चाहिए। वात प्रकोपकारी जीवनशैली का त्याग करना चाहिए जैसे ज्यादा बोलना, देर रात तक जागना, ठंडी हवाओं को झेलना आदि।
वसंत ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य मार्च से लेकर मध्य मई तक के समय काल को वसंत कहा जाता है जिसे अंग्रेजी में स्प्रिंग भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान कषाय रस (तुरा स्वाद) तथा वायु और पृथ्वी महाभूत प्रबल होते है। आयुर्वेद अनुसार इस ऋतु में इंसान की शक्ति मध्यम अवस्था में रहती है तथा कफ दोष का प्रकोप होता है एवं अग्नि मंद हो जाती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार वसंत ऋतु में ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए जो आसानी से पाचन हो जाये। पुराने जौ, गेहू, चावल आदि अनाज तथा मसूर, मूंगदाल आदि दाल का सेवन करना चाहिए। कटु (तीखा), तिक्त (कड़वा) और कषाय (तुरा) रस (स्वाद) वाले आहार का सेवन करना चाहिए। इसके अलावा आयुर्वेद में वसंत ऋतु दरम्यान आहार में मधु का इस्तेमाल करने का भी उल्लेख है। आसानी से पाचन होने वाले माँस जैसे की खरगोश के माँस आदि का सेवन भी करना चाहिए।
पाचन होने मे कठिन आहारों का त्याग करना चाहिए। शीत (ठंडे), स्निग्ध (चिपचिपे), गुरु (भारी), आम्ल (खट्टे) तथा मधुर (मीठे) आहारों का भी त्याग करना चाहिए।
पथ्य जीवनशैली: आयुर्वेद अनुसार वसंत ऋतु दरम्यान व्यायाम और गरम पानी से स्नान करना चाहिए। चंदन, केसर, अगरु आदि के पाउडर से मालिश करना चाहिए जिसे उदवर्तन कहते है। अन्य आयुर्वेद विधिया जैसे की कुल्ला करना, धूम पान करना, आंजन करना वगेरे का आचरण करना चाहिए। इस मौसम में दिन में सोना पूरी तरहसे हानिकारक है।
ग्रीष्म ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य मई से लेकर मध्य जुलाई तक के समय काल दरम्यान ग्रीष्म ऋतु होती है जिसे अंग्रेजी में समर भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान तीव्र गर्मी तथा अस्वस्थ हवाएँ चलती है। इस ऋतु दरम्यान कटु रस (तीखा स्वाद) तथा अग्नि और वायु महाभूत प्रबल होते है। आयुर्वेद अनुसार इस ऋतु में इंसान की शक्ति कम हो जाती है तथा वात दोष का संचय होता है एवं इंसान की अग्नि मध्यम अवस्था में रहती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार ग्रीष्म ऋतु में ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए जो पाचन होने मे हो हलके हो जैसे की चावल, जौ आदि जो मधुर (मीठे), स्निग्ध (चिपचिपे), शीत (ठंडे) और द्रव (तरल) गुण वाले हो। ग्रीष्म ऋतु में बहोत सारा पानी तथा अन्य तरल पदार्थ जैसे की छाछ, फलो का रस, आम रस, मांसरस आदि का प्रयोग करना सलहदायक है।
नमकीन, उष्ण (गरम) तथा कटु (तीखा) और आम्ल (खट्टे) स्वाद वाले आहारों का भी त्याग करना चाहिए।
पथ्य जीवनशैली: आयुर्वेद अनुसार ग्रीष्म ऋतु दरम्यान ठंडे वातावरण में रहना, शरीर पर चंदन तथा अन्य खुसबूदार पेस्ट्स लगाना, पुष्पों का इस्तेमाल करना, हलके कपड़े पहनना तथा दिन में सोना मदद रूप होता है। रात्रि समय दरम्यान हवा कि लहेरो के साथ चंद्रमा के ठंडे प्रकाश का आनंद उठाना चाहिए। अति व्यायाम एवं कठोर परिश्रम का त्याग करना चाहिए। आयुर्वेद में ग्रीष्म ऋतु दरम्यान अति काम लिप्तता तथा शराब के त्याग का भी वर्णन किया गया है।
वर्षा ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य जुलाई से लेकर मध्य सितम्बर तक के समय काल दरम्यान वर्षा ऋतु होती है जिसे अंग्रेजी में मॉनसून भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान आकाश बादलों से भर जाता है और बारिश होती है। तालाब, नदी वग़ैरा पानी से भर जाते है। इस ऋतु दरम्यान आम्ल रस (खट्टा स्वाद) तथा पृथ्वी और अग्नि महाभूत प्रबल होते है। आयुर्वेद अनुसार इस ऋतु में भी इंसान की शक्ति कम हो जाती है तथा वात दोष की दुष्टि और पित्त दोष का संचय होता है एवं इंसान की अग्नि की भी दुष्टि होती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार वर्षा ऋतु में आम्ल (खट्टे) और लवण (खारे) स्वाद वाले तथा चिपचिपे आहार का सेवन करना चाहिए। वर्षा ऋतु में पुराने जौ, चावल, गेहू वगेरे का सेवन करना चाहिए। आयुर्वेद में वर्षा ऋतु दरम्यान उबले हुए तथा औषधीय जल के सेवन का वर्णन भी है।
नदी जल, अति तरल आहार और मदिरा का त्याग करना चाहिए। पाचन में कठिन तथा भारी आहार जैसे मांस आदि का भी त्याग करना चाहिए।
पथ्य जीवनशैली: आयुर्वेद अनुसार वर्षा ऋतु दरम्यान उबले हुए पानी से नहाने के बाद पुरे शरीर पर तेल से मालिश करना हितकारक है। वर्षा ऋतु दरम्यान दूषित दोषो को बहार निकालने के लिए आयुर्वेद चिकित्सको द्वारा औषधीय बस्ती (मेडिकेटेड एनीमा) का प्रयोग भी किया जाता है।
वर्षा ऋतु दरम्यान वर्षा में भीगना, दिन में सोना, व्यायाम, अति परिश्रम, काम लिप्तता और नदी किनारे रहना टालना चाहिए।
शरद ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य सितम्बर से लेकर मध्य नवंबर तक के समय काल दरम्यान शरद ऋतु होती है जिसे अंग्रेजी में ऑटम भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान सूरज और उज्ज्वलित हो जाता है, आकाश साफ़ रहता है या कभी कभी सफ़ेद बदलो से भर जाता है और धरती गीली मिट्टी से ढक जाती है। इस ऋतु दरम्यान लवण रस (खारा स्वाद) तथा जल और अग्नि महाभूत प्रबल होते है। आयुर्वेद अनुसार इस ऋतु में इंसान की शक्ति मध्यम रहती है तथा वात दोष दुष्टि का शमन और पित्त दोष की दुष्टि होती है एवं इंसान की अग्नि की भी बढ़ती होती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार शरद ऋतु में मधुर (मीठा), तिक्त (कड़वा) स्वाद वाले तथा हलके और ठंडे गुण वाले आहार का सेवन करना चाहिए। दूषित पित्त की शमन करने वाले आहार का सेवन करना चाहिए। शरद ऋतु में गेहू, मुंग, मिस्री, पर्वल और सूखे प्रदेश में रहनेवाले जानवरो का मांस (जांगल मांस) वगेरे का सेवन करना चाहिए।
गरम गुण वाले, कड़वे तथा तुरे आहारों का त्याग करना चाहिए। इस ऋतु दरम्यान आहार जैसे की दही, समुद्री जानवरों का मांस, तेल, चर्बी वगैरे का भी त्याग करना चाहिए।
पथ्य जीवनशैली: आयुर्वेद अनुसार शरद ऋतु दरम्यान सिर्फ भूख लगने पर ही खाना चाहिए। दिन मे सूर्यकिरणोसे और रात्रि में चंद्रकिरणो से शुद्ध किया गया पानी ही पीने के लिए तथा स्नान करने के लिए लेना चाहिए। फूलों की माला पहनना, और शरीर पर चंदन की पेस्ट लगाना सलाहदायक है। यह माना जाता है की रात्रि में पहले ३ घंटो का चंद्र प्रकाश स्वस्थ के लिए लाभदायक है।
शरद ऋतु दरम्यान दिन में सोना, अति आहार तथा अति धुप में रहना टालना चाहिए।
हेमंत ऋतुचर्या:
सामान्य अवस्था: आयुर्वेद अनुसार मध्य नवंबर से लेकर मध्य जनुअरी तक के समय काल दरम्यान हेमंत ऋतु होती है जिसे अंग्रेजी में लेट ऑटम भी कहते है। इस ऋतु दरम्यान ठंडी हवाएँ बहना चालू होती है तथा सर्द का अनुभव होता है। इस दरम्यान मधुर (मीठा) स्वाद तथा पृथ्वी और जल महाभूत प्रबल होते है। इंसान का बल सबसे अधिक इस ऋतु में रहता है एवं दोषित पित्त भी का शमन होता है और अग्नि भी तेज हो जाती है।
पथ्य आहार: आयुर्वेद अनुसार हेमंत ऋतु में मीठे, खट्टे और खारे स्वाद वाले तथा चिपचिपे गुण वाले आहार का सेवन करना चाहिए। अनाज में नए चावल, आटे से बनी चीज़े, मुंग वगैरा का सेवन करना चाहिए। कई मांस, चर्बी, दूध, दूध की चीज़े, गन्ने और तिल आदि का सेवन भी करना चाहिए।
हलके, ठंडे और रुक्ष गुण वाले वात का प्रकोप करनेवाले आहारों का त्याग करना चाहिए। आयुर्वेद अनुसार हेमंत ऋतुमे कोल्डड्रिंक्स वगैरा का सेवन हानिकारक है।
पथ्य जीवनशैली: आयुर्वेद अनुसार हेमंत ऋतु दरम्यान व्यायाम, शरीर एवं सिर का मालिश, गरम पानी का उपयोग, धुप में रहना (सन बाथ), शरीर पर अगरु का उपयोग, भारी वस्त्र, सहभागी के साथ संभोग और गर्म जगह पर रहना चाहिए।
हेमंत ऋतु दरम्यान दिन में सोना, ठंडी हवाओं का सामना करना आदि टालना चाहिए।
Reference
- 1MG.com: Rituyon ke anusar Ayurveda
- Wikipedia: Ayurveda