स्वास्थ्य के बिना मनुष्य संसार में अपनी इच्छा अनुसार सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अपने लक्ष्य में सफल होने के लिये मनुष्य को स्वस्थ मन और स्वस्थ तन की आवश्यकता है । मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक हैं ।
किसी भी काम करने के लिये प्रेरित करते समय सभी लोग कहते हैं मन लगा कर काम करो । इसका मतलब हुआ कि सफलता के लिये मन को नियंत्रित करना आवश्यक है । ठीक इसी प्रकार शरीर को नियंत्रित रखने की आवश्यकता है ।
कहा गया है –‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” अर्थात धर्म का साधन शरीर है धर्म का संबंध अर्थ, काम और मोक्ष से है । अर्थ अर्थात धन कमाना हो, काम मतलब यश कीर्ति प्राप्त करना हो या कि जीवन के जन्म-मृत्यु के क्रम से छुटकारा पाना मतलब मोक्ष पाना हो बिना शरीर के संभव नहीं है । शरीर है तो शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है।
आयुर्वेद के सिद्धांतों को हमारे आचार्यो, मनिषियों ने दिनचर्या में इस प्रकार सम्मिलित कर दिये हैं कि पता ही नहीं चलता कि हम आयुर्वेद के आचरण को व्यवहार में ला रहे हैं । यह एक संस्कार एवं संस्कृति के रूप में आगे बढ़ रहा है । जो भी भारतीय संस्कृति से जुड़े है वह अनायास ही अयुर्वेद से जुड़े हुये हैं । पाश्चात्करण के कारण शहरों के लोग इस संस्कृति से दूर होते दिख रहे हैं किन्तु ग्रामीण संस्कृति अभी भी भारतीय संस्कृति के साथ आयुर्वेद को भी जी रहा है ।
आयुर्वेद के अनुसार जीवन की प्राथमिकताएं- Priorities of life according to Ayurveda
आयुर्वेद के अनुसार की जीवन की तीन प्राथमिकताएं होती हे । पहली प्राथमिकता जीवन को बनाये रखना है । जीवन शक्ति को बनाये रखने के लिये स्वास्थ की रक्षा आवाश्यक है । दूसरी प्राथमिकता धनोपार्जन करना और तीसरी प्राथमिकता अध्यात्मिकता पर ध्यान देना होना चाहिये । दूसरी और तीसरी प्राथमिकता पहली प्राथमिकता पर निर्भर है । तन और मन स्वस्थ होगा तभी धनोपार्जन किया जा सकता है और तभी अध्यात्मिक साधना ही किया जा सकता है ।
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एक कोशकीय जीव से लेकर बहुकोशकीय जीव सभी नैसर्गिक रूप से प्राण रक्षा के प्रयास करते हैं । किन्तु दुखद स्थिति मानवों के स्वभाव में देखने को मिलता है । बहुसंख्य लोग धनोपार्जन को पहली प्राथमिकता और स्वास्थ को दूसरी प्राथमिकता मान लेते हैं ।
माना धन जीवन के लिये आवश्य है । बिना धन के जीवन दुभर हो जाता है किन्तु बिना स्वास्थ के धन का क्या औचित्य ? यदि आप स्वस्थ रहेंगे तभी न धन का उचित उपभोग कर सकेंगे । तीसरी प्राथमिकता आत्म कल्याण का है । इस पर तो अब बहुधा लोग विचार ही नहीं करते किन्तु यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है । मानव देह को मुक्ति का देह कहा गया है ।
कहा गया है कि मानव देह प्राप्त करने के लिये देवता भी ललायित रहते हैं क्योंकि केवल और केवल मानव देह से आत्मकल्याण संभव है ।
आयुर्वेद एक जीवन शैली- Ayurveda, a lifestyle
आयुर्वेद में स्वास्थ रक्षा के लिये एक सहज जीवन शैली विकसित किया गया है । (Ayurveda in Everyday Life) यह जीवन शैली रोग या विकार को उत्पन्न होने से पहले ही नष्ट कर देता है । जीवन शैली वास्तव में एक डेली रूटिंग होता है जिसे करने से मानव देह और मन दोनों का सतत शोधन होते रहता है । जनसमान्य उन विशेष बातों से अनभिज्ञ रहते हैं उन्हें इन से कोई सरोकार भी नहीं रहता किन्तु करना है यह मान कर करते रहते हैं ।
सुबह सो कर उठने से रात को सोने तक मनुष्य के सभी व्यक्तिगत क्रियायें निर्धारित हैं । सुबह सूर्योदय से पहले उठना, उठकर शौच आदि से निवृत होकर हाथ-पैर को अच्छे से मिट्टी से धोना, दातुन (पेड़ों की डाली का पतला भाग) से दांतों की अच्छे से सफाई करना, प्राकृतिक अनाजों का स्वलपाहार लेना, गौ दूध का सेवन करना, फिर धनोपार्जन के लिये परिश्रम करना, मध्यान् में स्वस्थ शाकाहारी भोजन करना, रात्रि में जल्दी भोजन कर समय पर सोना ।
यह आयुर्वेद की जीवन शैली है । इसके हर कृत्य में तन और मन के स्वास्थ्य का ध्यान रखा गया है । सूर्योदय से पहले उठने से सूर्य के नर्म धूप शरीर में लेना, समय पर नियमित शौच करना, समय पर शाकाहारी भोजन लेना, समय पर सोना ये सभी आयुर्वेद के त्रिदोष संतुलन में सहायक होते हैं ।
किन्तु आज धनोपार्जन के आपा-धामी में और भौतिकवादी होने के कारण यह जीवन शैली छूटती जा रही है । यही कारण है लोग अधिक बिमार हो रहे हैं । यहॉं तक डाबिटिज, ब्लड़ प्रेशर जैसे कुछ रोग जीवन के अंग बन गये हैं । लोग इन रोगों के साथ जीने को विवश हो गये हैं ।
स्वास्थ्य का रहस्य- Health Secret
रोगों के उपचार की अपेक्षा रोगों से बचना अधिक श्रेष्कर होता है । स्वास्थ्य संबंधी कुछ आवश्यक नियमों के पालन करने से रोगों से बचा जा सकता है । नियम को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि स्वस्थ्य रहने का अर्थ क्या है ? जब शरीर के सभी वाह्य एवं अंत: अंग अपने-अपने कार्य का संपादन ठीक-ठाक कर रहे हों तो उसे स्वस्थ कहते हैं ।
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यहॉं एक बात ध्यान देने योग्य हैं स्वस्थ कहने का अर्थ मानसीक एवं शरीरिक दोनों रूप से फीट होना है । खान-पान, आहार-विहार, रहन-सहन, को संयमित और नियमित रखने से मानसीक एवं शारीरिक दोनों प्रकार से स्वस्थ रहा जा सकता है ।
आयुर्वेद में स्वस्थ रहने के अनेक सूत्र, उपसूत्र कहें गये हैं किंतु सारांश रूप में इसे अपने जीवन शैली में निम्न दस नियम या सूत्र अपना कर स्वस्थ रहा जा सकता है –
- शरीर की समुचित साफ-सफाई – यह बात तो बच्चा-बच्चा जानता है कि गंदगी से रोग होता है । इसलिये शरीर की नियमित एवं समुचित साफ-सफाई आवश्यक होता है । शरीर की सफाई का अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि केवल वाह्य अंगों की सफाई की जाये और आंतरिक अंगों पर ध्यान न दिया जाये । आंतरिक अंगों की सफाई शरीर के अपशिष्ट मल, मूल, पसीना का उचित निष्कासन से स्वभाविक होता है । इन अपशिष्टों का समय पर उचित मात्रा में शरीर निष्कासन होना चाहिये ।
- सामर्थ्यानुसार व्यायाम या परिश्रम – शारीरिक परिश्रम या व्यायाम शरीर के लिये उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के लिये भोजन, पानी और वायु । आरामपरस्ता अनेक रोगों को जन्म देता है । इसलिये जो शारीरिक श्रम नहीं करते उन्हें व्यायाम करना आवश्यक होता है । अपने शारीरिक क्षमता के अनुसार हमें व्यायाम करना चाहिये ।
- पौष्टिक भोजन ग्रहण करना – भोजन से ही शरीर संचालन के लिये आवश्यक ऊर्जा की पूर्ति होती है । इसलिये शरीर को पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है । भोजन ऐसा हो जिसमें शरीर के लिये आवश्यक सभी पोष्क तत्वों का समावेश हो ।
- उचित निद्रा एवं आराम – शरीर के लिये जितना आवश्यक परिश्रम है उतना ही आवश्य आराम करना भी है । प्रतिदिन नियमित रूप से उचित निंद्रा लेना आवश्यक है । निद्रा शरीर संचालन के लिये नई ऊर्जाओं का संचार करती है । अनिद्रा होने से अनेक रोग आक्रमण कर देते हैं ।
- तनाव मुक्त रहना– मानसिक स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है कि तनाव मुक्त रहा जाये । इसके लिये अनावश्यक रूप से किसी विषय पर अधिक नहीं सोचना चाहिये । योगासान की सहायता से तनाव को नियंत्रित किया जा सकता है ।
- शरीर का नियमित मालिश करना– शरीर का नियमित रूप से मालिश करना शरीर के लिये टॉनिक के समान है । इससे रक्त संचार तीव्र होता है और अंगों का थकान दूर होता है । बादाम के तेल, जैतुन के तेल, सरसों क तेल से शरीर का मालिश किया जाना चाहिये ।
- उपवास करना – उपवास स्वास्थ्य के लिये अत्यंत आवश्यक किंतु एक सरल प्राकृतिक क्रिया है । उपवास करने से शरीर की आंतरिक सफाई होती है । पाचन तंत्र सक्रिय होता है । इसलिये नियमित उपवास किया जाना चाहिये । ऐसे तो साप्ताहिक उपवास कहा गया है किंतु अपने सामर्थ्य अनुसार पाक्षिक या मासिक उपवास करने से भी लाभ होंगे ।
- उठने-बैठने की उचित मुद्रा का प्रयोग करना– हमारे शारीरिक मुद्रओं का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है । हमारे उठने-बैठने की मुद्रा इस प्रकार कदापि न हो जिससे हमारे मांसपेशियों और मेरूदण्ड पर अनावश्यक दबाव पड़े । खड़े होकर काम करते समय या बैठ कर काम करते समय एक बात का विशेष ध्यान रखें की मेरूदण्ड पर अधिक दबाव न पड़े ।
- सतसंगती करें-मानसिक स्वास्थ्य के लिये आवश्य है कि आपका चिंतन स्वस्थ हो इसके लिये आवश्यक है कि आपकी संगती सही हो । यहां संगती कहने का अर्थ केवल आपके मित्रों से ही नहीं अपितु उन प्रत्येक चीजों से जिनसे आपके मन में प्रभाव पड़ता हो जैसे पुस्तक, चलचित्र आदि । ऐसे संगती करने से बचे जिससे कुभाव पैदा होते हों ।
- सामयिक वस्त्र धारण करना-मौसम के अनुकूल के साथ-साथ समय के अनुकूल वस्त्र धारण करना चाहिये । समय अनुकूल कहने का अर्थ है शारीरिक काम करते समय, आराम करते समय, बैठते समय आदि । वस्त्र ऐसे हो जिससे शारीर का संचालन सुविधापूर्वक हो सके ।
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आयुर्वेद का यह बार-बार कथन है कि रोग उपचार करने के बचाये रोगों से बचाव का उपाय किया जाना चाहिये । रोगों से बचाव के लिये खान-पान, आहार-विहार और रहन-सहन पर आयुर्वेद जोर देता है । उपरोक्त क्रियाओं यथासंभव अपने जीवन में उतार ले अथवा भारतीय संस्कृति जीवन शैली जो आयुर्वेद सम्मत है, को अपनाये रखें उसे दूर न भागें तो रोग हमसे दूर भागेगा ।
निश्चित रूप आयुर्वेद के सिद्धांत नियम हमारे दैनिक जीवन में उपयोगी है । इसे दैनिक जीवन में जीवन शैली के रूप में प्रयुक्त करने से हमारे स्वास्थ्य रहने की प्रत्याशा अधिक होती है ।
Reference
- Government of India Ayurveda