patni kiski – Vikram betal story in hindi
राजा विक्रमादित्य ने फिर से पेड़ पर चढ़कर बेताल को नीचे उतारा और अपने कंधे पर डाल कर चल दिए। काली अंधेरी रात में चारों ओर झिंगुरों की आवाज गूंज रही थी। सन सनाती हुई ठंडी हवा मैं कंधे पर लटके निर्जीव से बेताल ने अपनी कहानी शुरू की…
मगध की राजधानी में बिंदु शेखर नामक एक धनी व्यापारी रहता था। वह अपने समाज में अपने धन और शान शौकत से रहने के लिए जाना जाता था। उसका एक बेटा था, जिसका नाम राजशेखर था।
राजशेखर के बचपन का मित्र अविरूप था। दोनों साथ -साथ खेलते खाते बड़े हुए थे । दोनों में गहरी मित्रता थी, यदि कोई अनजान उन्हे देखता, तो भाई ही समझता था।
जवान होकर दोनों साथ साथ घूमने जाया करते थे। एक नदी के किनारे दुर्गा मां का मंदिर था। दोनों मित्र नदी के किनारे आराम कर रहे थे। तभी राजशेखर ने एक बहुत सुंदर लड़की देखी। उसे देखते ही पहली नजर में वह अपना दिल हार गया और उस से प्रेम करने लगा। अविरूप उस लड़की को काफी पहले से ही जानता था और भी उस से प्रेम करता था। उसने अपने मित्र को बताया कि उस लड़की का नाम रंजावती है और वह धोबी जाति की है।
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वे लोग प्रतिदिन रंजावती से मिलने लगे। अविरूप ने राज शिखर से कहा कि उसे माता-पिता को अपने मन की बात देनी चाहिए।
राजशेखर उदास होकर झुकी हुई आंखों से बोला, “ मैं जानता हूं, वे लोग इस रिश्ते के लिए कभी राजी नहीं होंगे। अपने से नीची जाति की कन्या को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।उल्टे नाराज हो जाएंगे”। अविरूप यह सुनकर बहुत दुखी हुआ।
धीरे-धीरे राज शिखर और रंजावती का प्रेम गहरा हो गया।
जब राजशेखर के लिए असहनीय हो गया, तो वह दुर्गा माता के चरणों में गिरकर बोला, “मां! मैं रंजावती के बिना नहीं रह सकता। मैं उससे विवाह करना चाहता हूं। मैं आपसे प्रतिज्ञा करता हूं की पूर्णिमा के दिन अपना सिर आपको अर्पित करूंगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए”।
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राजशेखर पर जैसे जुनून सवार हो। उसने खाना पीना भी छोड़ दिया। धीरे-धीरे उसकी हड्डियां निकल आई और वह सूखकर कांटा हो गया। माता-पिता को उसे देखकर चिंता होने लगी। आखिर एक दिन अविरूप ने उन्हें बताया कि राजशेखर को रन जावती से प्रेम हो गया है और वह आपकी सहमति के बिना उसे विवाह नहीं कर सकता।
पुत्र वियोग के डर से बिंदु शेखर और उसकी पत्नी ने राजशेखर और रंजावती के विवाह की अनुमति दे दी। धूम धाम से दोनों का विवाह हो गया और दोनों प्रसन्नता पूर्वक रहने लगे।
एक दिन राजशेखर, अविरूप और रंजावती उसी नदी के किनारे घूम रहे थे, जहां रन जावती को पहली बार उसने देखा था। राजशेखर को दुर्गा माता से की हुई अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई। वह पूर्णिमा की प्रतीक्षा करने लगा।
वह पूर्णिमा के दिन मंदिर गया। हाथ जोड़कर देवी मां से प्रार्थना की, उनका आशीर्वाद लिया और फिर तलवार निकालकर अपना सिर काट लिया।
राजशेखर के वापस न लौटने पर रंजावती परेशान होने लगी।
उसने राजशेखर को ढूंढने अविरूप को भेजा। मंदिर में राजशेखर का यह हाल देखकर अविरूप बहुत दुखी हुआ। उसने दुर्गा मां से प्रार्थना की, “ यदि मैं जा कर यह बताऊंगा, तो लोग यही कहेंगे कि मैंने उसकी सुंदर पत्नी को प्राप्त करने के लिए इच्छा से राजशेखर को मार डाला है। मैं खुद को आपको अर्पित करता हूं। कृपया मेरा बलिदान स्वीकार करें”। यह कहकर उसने तलवार निकालकर अपना सिर देवी को अर्पित कर दिया।
अधीर रंजावती दोनों को ढूंढती हुई खुद मंदिर की ओर गई। मंदिर पहुंचकर खून से लथपथ दोनों के कटे सिर देखकर वह सकते में आ गई। दुख से विशिप्त होकर उसने दुर्गा मां से प्रार्थना की, “ हे मां! मेरे पति अब इस दुनिया में नहीं है,तो मेरा जीवन किस काम का है…” ऐसा कहकर वह जैसे ही तलवार से अपना अंत करने लगी, वैसे ही एक तेज पुंज के साथ मां खुद प्रकट होकर बोली, “ पुत्री, मैं इन दोनों विनम्र लोगों के बलिदान से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपना हंस मत करो। तुम जैसे ही इनके शरीर पर इनके सिर लगाओगी मैं इन्हें जीवनदान दे दूंगी।”
इतना कहकर दुर्गा मां अंतर्ध्यान हो गई आनंद से भरी रंजावती ने दोनों सिरों को धड़ से मिला दिया। पर भावना के अतिरेक में उसने राजशेखर के सिर को अविरूप
के शरीर पर और अविरूप के सिर को राजशेखर के शरीर पर लगा दिया।
बेटा ने कहा, “ राजन्! तुम्हें क्या लगता है… रन जावती को किसे अपना पति स्वीकारना चाहिए?” विचारों में खोया हुआ राजा तुरंत बोला, “बेताल, राजशेखर के सिर वाला शरीर रंजावती को चुनना चाहिए। क्योंकि फिर शरीर का मुख्य हिस्सा होता है और उसी से मनुष्य के व्यक्तित्व एवं चरित्र की पहचान होती है।”
राजा चतुराई से सही उत्तर देगा, यह बेताल को बना था। उसने कहा, “ आप फिर से सही है”और हंसता हुआ बेताल पेड़ की और उड़ गया।