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सोने का हंस – जातक कथाएँ | Jatak Story In Hindi | Sone Ka Hans jatak katha in hindi
वाराणसी में एक कर्तव्यनिष्ठ व शीलवान् गृहस्थ रहता था। तीन बेटियों वा और एक पत्नी के साथ उसका एक छोटा सा घर संसार था। किंतु अल्प आयु में ही उसका निधन हो गया।
मरणोपरांत उस गृहस्थ का पुनर्जन्म सोने के एक हंस के रूप में हुआ। पूर्व जन्म के उपादान और संस्कार उसमें इतने प्रबल थे कि वह अपनी मनुष्य योनि के घटना क्रम और उनको भाषा को विस्मृत नहीं कर पाया। पूर्व जन्म के परिवार का मोह और उनके प्रति उसका लगाव उसके वर्तमान को भी प्रभावित कर रहा था। एक दिन वह अपने मोह के आवेश में आकार वाराणसी को उड़ चला, जहाँ उसकी पूर्व जन्म की पत्नी और तीन बेटियाँ रहा करती थीं।
घर की मुंडेर पर पहुँचकर जब उसने अपनी पत्नी और बेटियों को देखा तो उसका मन खिन्न हो उठा, क्योंकि उसके मरणोपरांत उसके परिवार की आर्थिक दशा दयनीय हो चुकी थी। उसकी पत्नी और बेटियाँ अब सुंदर वस्त्रों की जगह चिथड़ों में दिख रही थीं। वैभव के सारे सामान भी वहाँ से तिरोहित हो चुके थे।
फिर भी पूरे उल्लास के साथ उसने अपनी पत्नी और बेटियों का आलिंगन कर उन्हें अपना परिचय दिया और वापस लौटने से पूर्व उन्हें अपना सोने का एक पंख भी देता गया, जिसे बेचकर उसके परिवार वाले अपनी गरीबी को कम कर सकें।
इस घटना के पश्चात हंस समय-समय पर उनसे मिलने वाराणसी जाता और हर बार उन्हें सोने का एक पंख देकर चला जाता। बेटियाँ तो हंस की दानशीलता से संतुष्ट थीं, मगर उसकी पत्नी बहुत ही लोभी प्रवृत्ति की थी। उसने सोचा, क्यों न वह उस हंस को मारकर एक ही पल में धनी बन जाए।
बेटियों को भी उसने अपनी बात कही, मगर उसकी बेटियों ने उसका कड़ा विरोध किया। अगली बार जब वह हंस वहाँ आया तो संयोगवश उसकी बेटियाँ वहाँ नहीं थीं।
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उसकी पत्नी ने तब उसे बड़े प्यार से पुचकारते हुए अपने करीब बुलाया। छल-प्रपंच के खेल से अनभिज्ञ वह हंस खुशी-खुशी अपनी पत्नी के पास दौड़ता चला गया, मगर यह क्या उसकी पत्नी ने बड़ी बेरहमी से उसकी गरदन पकड़ उसके सारे पंख एक ही झटके में नोच डाले और खून से लथपथ उसके शरीर को लकड़ी के एक पुराने संदूक में फेंक दिया।
फिर जब वह उन सोने के पंखों को समेटना चाह रही थी तो उसके हाथों सिर्फ साधारण पंख ही लग सके, क्योंकि उस हंस के पंख उसकी इच्छा के प्रतिकूल नोचे जाने पर साधारण हंस के समान हो जाते थे।
बेटियाँ जब लौटकर घर आई तो उन्होंने अपने पूर्व जन्म के पिता को खून से सना देखा। उसके सोने के पंख भी लुप्त थे। सारी बात उनको समझ में आ गई। उन्होंने तत्काल ही हंस की भरपूर सेवा-शुश्रूषा कर कुछ ही दिनों में उसे स्वस्थ कर दिया।
स्वभावतः उसके पंख फिर से आने लगे, मगर अब वे सोने के नहीं थे। जब हंस के पंख इतने निकल आए कि वह उड़ने लायक हो गया, तो वह उस घर से उड़ गया और फिर कभी वाराणसी में दिखाई नहीं पड़ा।
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