दोस्तों आपने हिंदी साहित्य के स्तंभ कहे जाने वाले मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) की कहानियों के बारे में ज़रुर सुना होगा, इनमे से ही एक प्रसिद्ध कहानी – निर्वासन के बारे मे आप इस लेख मे पढ़ेंगे।
प्रेमचंद की कहानी “निर्वासन” Premchand Story “Nirwasan”
निर्वासन – मुंशी प्रेमचंद की कहानी | nirvaasan Munshi Premchand ki kahani in Hindi
परशुराम-वही वही दालान मै ठहरो!
मर्यादा-क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई!
परशुराम-पहले यह बताओ तो इतने दिनों से कह रही, किसके साथ रही, किस तरह रही, और फिर यह किसके साथ आयी? तब, तब विचार…….. देखी जाएगी।
मर्यादा-क्या इन बातों को पूछने का यही वक्त है; फिर अवसर नहीं मिलेगा?
परशुराम-हाँ, यही बात है। तुम शान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थी। मेरे पीछे पीछे कुछ देर आई भी; मैं पीछे फिर फिर तुम्हें देखता जाता था, फिर एकाएक तुम कहाँ गायब हो गई?
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मर्यादा-तुमने देखा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इधर उधर दौड़ने लगे। मैं भी धक्के में पढ़कर जानें किधर चली गई। जरा़ भीड़ कम हुई तो तुम्हे ढूंढने लगी। बासु का नाम लेकर पुकारने लगी पर तुम न दिखाई दिए।
परशुराम-अच्छा तब?
मर्यादा-तब मैं एक किनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही नहीं पड़ता कि कहाँ जाऊं, किससे कहूँ, आदमियों से डर लगता था। संध्या तक वहीं बैठी रोती रही।
परशुराम-इतना तूल क्यों देती हूँ? वहाँ से फिर कहाँ गयी?
मर्यादा-संध्या को एक युवक ने आकर मुझसे पूछा, तुम्हारे घर के लोग कहीं खो तो नहीं गए हैं? मैने कहा-है तब उसने तुम्हारा नाम पता ठिकाना पूछा। उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला-मेरे साथ आओ मैं तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूंगा।
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परशुराम-वह आदमी कौन था?
मर्यादा-वहाँ कई सेवा समिति का स्वयंसेवक था।
परशुराम-तो तुम उसके साथ हो ली?
मर्यादा-और क्या करती? वह मुझे समिति के कार्यालय में ले गया वहाँ एक शामियाने में एक लंबी दाढ़ी वाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। युवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने ही सेवक वहाँ खड़े थे। उसने मेरा पता ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहाँ और भी कितनी खोई हुई स्त्रियां बैठी हुई थी।
परशुराम-तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न कहा कि मुझे पहुंचा दीजिए?
मर्यादा-मैने एक बार नहीं सैकड़ों बार कहा; लेकिन वह यह कहते रहे जब तक मेला न खत्म हो जाए और सब खोई हुई स्त्रियां एकत्र न हो जाए मैं भेजने का प्रबंध नहीं कर सकता। मेरे पास इतना इतने आदमी है और ना इतना धन।
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परशुराम-धनकी तुम्हें क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज़ भेज देती तो काफी रुपये मिल जाते।
मर्यादा-आदमी तो नहीं थे।
परशुराम-तुमने यह कहा था कि खर्च की कुछ चिंता न कीजिए, मैं अपने गहने बेचकर अदा कर दूंगी?
मर्यादा-सब औरतें कहने लगी, घबराई क्यों जाती हो? यह किस बात का डर है? हम सभी जल्द अपने घर पहुंचना चाहती है; मगर क्या करें? तब मैं भी चुप हो रही।
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परशुराम-और सब स्त्रियां कुएं में गिर पड़ती तो तुम भी गिर पड़ती?
मर्यादा-जानती थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकरी या मंजूर नहीं है, फिर आग्रह किस मुँह से करती? यह बात भी है कि बहुत सी स्त्रियों को वहाँ देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गई।

परशुराम-हाँ, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात हो सकती थी? अच्छा, वहाँ के दिन तसकीम का आनंद उठाती रही? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा?
मर्यादा-रात भर में स्थितियों के साथ उसी शामियाने में रही।
परशुराम-अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया?
मर्यादा-मैने समझा, जब यह लोग पहुंचाने की कहते ही है तो तार क्यों दूं?
परशुराम-खैर, रात को तुम वही रही। युवक बार बार भीतर आते रहे होंगे?
मर्यादा-केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आया था जब हम सबों ने खाने से इनकार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई नहीं आया। मैं रात भर जागती रहीं।
परशुराम-यह मैं कभी नहीं मानूंगा कि इतने युवक वहाँ थे और कोई अंदर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होते। खैर, वह दाढ़ी वाला अध्यक्ष तो जरूर ही देखभाल करने गया होगा?
मर्यादा-हाँ, वहाँ आते थे। पर द्वार पर से पूछ पूछकर लौट जाते थे। हाँ, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो तीन बार दवाएं खिलाने आए थे।
परशुराम-निकली ना वही बात! मैं इन नीच की नस नस पहचानना हूँ। विशेषकर तिलक मालाधारी को मैं गुरु घंटाल ही समझता हूँ तो वे महाशय कई बार दवाई देने गए? क्यों तुम्हारे पेट में तो दर्द नहीं होने लगा था?
मर्यादा-तुम एक साधु पुरुष पर आक्षेप कर रहे हो। वह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आंखें नीची किए रहने के सिवाय कभी किसी पर सीधी निगाह नहीं करते थे।
परशुराम-हाँ, वह सब देवता ही देवता जमा थे। खैर, तुम रात भर वहीं रही दूसरे दिन क्या हुआ?
मर्यादा-दूसरे दिन भी वही रही। एक स्वयंसेवक हम सब स्थितियों को साथ में लेकर मुख्य पवित्र स्थानों का दर्शन कराने गया। दोपहर को सब लौटकर आए और सबों ने भोजन किया।
परशुराम-तो वहाँ तुमने सैर सपाटा भी खूब किया, कोई कष्ट न होने पाया। भोजन के बाद गाना बजाना हुआ होगा?
मर्यादा-गाना बजाना तो नहीं, हाँ सब अपना अपना दुखड़ा रोती रही, शाम तक मेला उठ गया तो दो सेवक हमलोगों को लेकर स्टेशन पर आए।
परशुराम-मगर तुम तो आज सातवें दिन आ रही हो और वह भी अकेली?
मर्यादा-स्टेशन पर एक दुर्घटना हो गई।
परशुराम-हाँ, यह तो मैं समझ रहा था। क्या दुर्घटना हुई?
मर्यादा-जब सेवक टिकट लेने जा रहा था, तो एक आदमी ने आकर उससे कहा-यहाँ गोपीनाथ के धर्मशाला में एक आदमी ठहरे हुए हैं, उनकी स्त्री खो गई है, उनका भल्ला सास नाम है, गोरे गोरे लंबे से खूबसूरत आदमी है, लखनऊ मकान है, छवाई टोले में, तुम्हारा हुलिया उसने ऐसा ठीक बयान किया कि मुझे उस पर विश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबूजी को जानते हो? वह हंसकर बोला, जनता नहीं तो तुम्हें तलाश क्यों करता फिरता। तुम्हारा बच्चा रो रोकर हलकान हो रहा है।
सब औरतें कहने लगी, चली जाओ, तुम्हारे स्वामीजी घबरा रहे होंगे। स्वयंसेवक ने उसे दो चार बातें पूछकर मुझे उसके साथ कर दिया। मुझे क्या मालूम था कि मैं किसी नर पिशाच के हाथों पढ़ी जाती हूँ। दिल में खुशी थी कि अब बासु को देखूंगी तुम्हारे दर्शन करूँगी। शायद उसी उत्सुकता ने मुझे असावधान कर दिया।
परशुराम-तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? वह कौन था?
मर्यादा-क्या बदलाव कौन था? मैं तो समझती हूँ कोई दलाल था?
परशुराम-तुम्हें यह न सूची की उससे कहती, जाकर बाबूजी को भेज दो?
मर्यादा-बुरे दिन आते हैं तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
परशुराम-कोई आ रहा है।
मर्यादा-मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूँ।
परशुराम-आओ भाभी, क्या अभी सोई नहीं, 10 तो बज गए होंगे।
भाभी-वासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या हो गया?
परशुराम-हाँ, वह तो अभी रोते रोते सो गया।
भाभी-कुछ मर्यादा का पता चला? अब पता मिले तो भी तुम्हारे किस काम की। घर से निकली स्त्रियों स्थान से छुट्टी हुई घोड़ी है। जैसा कुछ भरोसा नहीं।
परशुराम-कहाँ से कहाँ लेकर मैं उसे नहाने लगा।
भाभी-अच्छा तो मैं जाती हूँ।
मर्यादा-हैलो बाहर आकर! होनहार नहीं हूँ, तुम्हारी चाल है। को प्यार करने के बहाने तुम इस तरह घर पर अधिकार ज़माना चाहती।
परशुराम-बको मत! वह दलाल तुम्हें कहाँ ले गया।
मर्यादा-स्वामी, यह न पूछिए, मुझे कहते लज्जा आती है।
परशुराम यहाँ आते तो और भी लज्जा आनी चाहिए थी
मर्यादा-मैं परमात्मा को साक्षी देती हूँ, की मैने उसे अपना अंग भी स्पर्श नहीं करने दिया।
परशुराम-उसका हुलिया बयान कर सकती हो।
मर्यादा-सांवला सा छोटे डील डॉल का आदमी था। नीचा कुर्ता पहने हुए था।
परशुराम-गले में ताबीज भी था?
मर्यादा-हाँ था तो।
परशुराम-वह धर्मशाला का मेहतर था। मैने उसे तुम्हारे गुम हो जाने की चर्चा की थी। उस दुष्ट ने उसका वहाँ स्वांग रचा।
मर्यादा-मुझे तो वह कोई ब्राह्मण मालूम होता था।
परशुराम-नहीं वह मेहतर था।वह तुम्हें अपने घर ले गया?
मर्यादा-हाँ उसने मुझे तांगे में बैठाया और एक तंग गली में एक छोटे से मकान के अंदर ले जाकर बोला तुम यहीं बैठो, तुम्हारे बाबूजी यही आएँगे। अब मुझे विदित हुआ कि मुझे धोखा दिया गया। मैं रोने लगी। वह आदमी थोड़ी देर बाद चला गया और एक बढ़िया आकर मुझे भांति भांति के प्रलोभन देने लगीं। सारी रात रो रो कर काटी दूसरे दिन दोनों फिर मुझे समझाने लगे कि रो रो कर जान दे दूंगी, मगर यहाँ कोई तुम्हारी मदद न करेगा। तुम्हारा एक घर टूट गया।
हम तुम्हें उससे कहीं अच्छा घर देंगे जहाँ तुम सोने के कौर खाओगी और सोने से लदकद जाओगी। तब मैने देखा कि यहाँ से किसी तरह नहीं निकल सकतीं तो मैने कौशल करने का निश्चय किया।
परशुराम-खैर, सुन चुका। मैं तुम्हारा ही कहना मान लेता हूँ कि तुमने अपने सतीत्व की रक्षा की पर मेरा हृदय तुमसे घृणा करता है तो मेरे लिए फिर वही नहीं निकल सकतीं जो पहले थी इस घर में तुम्हारे लिए स्थान नहीं है।
मर्यादा-स्वामीजी यह अन्याय ऑन कीजिये मैं आपकी वही स्त्री हूँ जो पहले थी। सोचिए मेरी दशा क्या होगी?
परशुराम-मैं यह सब सोच चुका और निश्चय कर चुका। आज 6 दिन से यह सोच रहा हूँ। तुम जानती हूँ कि मुझे समाज का भय नहीं। छोटे विचार को मैने पहले ही तिलांजलि दे दी देवी देवताओं को पहले ही विदा कर चुका; पर जीस स्त्री पर दूसरी निगाह पड़ चुकी जो एक सप्ताह तक नजाने कहाँ और किस दशा में रही, उसी अंगीकार करना मेरे लिए असंभव है। अगर अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है मेरा दोष नहीं
मर्यादा-मेरी विवशता पर आपको ज़रा भी दया नहीं आती?
परशुराम-जहाँ घृणा है वह दया कहा? मैं अब भी तुम्हारा भरण पोषण करने को तैयार हूँ। जब तक जिऊंगा तुम्हें अन्य वस्त्र का कष्ट ना होगा पर तुम मेरी स्त्री नहीं हो सकती।
मर्यादा-मैं अपने पुत्र का मुँह न देखो अगर किसी ने मुझे स्पर्श भी किया हो।
परशुराम-तुम्हारा किसी अन्य पुरुष के साथ क्षण भर भी एकांत में रहना तुम्हारे पति व्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बंधन है रहे तो जन्म जन्मांतर तक रहे; टूटे तो क्षण भर में टूट जाए। तुम ही बताओ किसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना झूठा भोजन खिला दिया होता तो मुझे स्वीकार करती?
मर्यादा-वह….. वह… तो दूसरी बात है।
परशुराम-नहीं एक ही बात है। जहाँ भावों का संबंध है वहाँ तर्क और न्याय से काम नहीं चलता। यहाँ तक अगर कोई कह दे कि तुम्हारे पानी को महत्व न छू दिया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आएगीहे। अपने ही दिल से पूछो तुम्हारे साथ न्याय कर रहा हूँ या अन्याय।
मर्यादा-मैं तुम्हारी छोड़ी चीजें न खाती, तुम से पृथक रहती पर तुम्हें घर से सोना निकाल सकती थी। मुझे इसलिए न दुकान रहे हो कि तुम घर के स्वामी हो।
परशुराम-यह बात नहीं है मैं इतना नीच नहीं हूँ।
मर्यादा-तो तुम्हारा यही अंतिम निश्चय है?
परशुराम-हाँ अंतिम।
मर्यादा-जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?
परशुराम-इन्होने जानता भी हूँ और नहीं भी जानता।
मर्यादा-मुझे वासुदेव ले जाने दोगे?
परशुराम-वासुदेव मेरा पुत्र हैं।
मर्यादा-उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे?
परशुराम-अपनी इच्छा से नहीं, तुम्हारी इच्छा हो तो दूर से देख सकती हो।
मर्यादा-तो जाने दो, न देखूंगी। समझ लूंगी कि विधवा हूँ और बांझ। चलो मन, अब इस घर में तुम्हारा निर्वाह नहीं होगा। चलो जहाँ भाग ले चले।