दोस्तों आपने हिंदी साहित्य के स्तंभ कहे जाने वाले मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) की कहानियों के बारे में ज़रुर सुना होगा, इनमे से ही एक प्रसिद्ध कहानी – नरक का मार्ग के बारे मे आप इस लेख मे पढ़ेंगे।
नरक का मार्ग – मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी | Narak Ka Marg – A Story written by Munshi Premchand
नरक का मार्ग – शी प्रेमचंद की कहानी | narak ka marg Munshi Premchand ki kahani in Hindi
रात भक्तमाल पढ़ते पढ़ते न जाने कब नींद आ गई। कैसे कैसे महात्मा थे जिनके लिए भगवत्प्रेम ही सबकुछ था, इसी मेँ मग्न रहते थे। एसी भक्ति बड़ी तपस्या से मीलती है। क्या मैं वह तपस्या नहीं कर सकतीं? इस जीवन में और कौन सा सुख रखा है? आभूषण से जिसे प्रेम हो जानें, यहाँ तो इनको देखकर आंखें फूटती है; धन दौलत पर जो प्राण देता हो वह जानें, यहाँ तो इनका नाम सुनकर बुखार चढ़ आता है। कल पगली सुशीला ने कितनी उमंगों से मेरा शृंगार किया था, कितने प्रेम से बालों में फूल गुथे। कितना मना करती रही न मानी।
आखिर वहीं हुआ जिसका मुझे भय था। जीतनी देर उसके साथ हँसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोई। संसार में ऐसी कोई स्त्री है, जिसका पति उसका शंकर देखकर सिर से पांव तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पति के मुँह से ये शब्द सुनें-तुम मेरा परलोग बिगाड़ोगी, और कुछ नहीं काम तुम्हारे रंग ढंग कहीं देते हैं-और मनुष्य उसका दिल विश खा लेने को चाहे। भगवान! संसार में ऐसे भी मनुष्य है। आखिर मैं नीचे चली गई और भक्ति माला पड़ने लगी। अब वृंदावन बिहारी ही की सेवा करूंगीं उन्हीं को अपना शंकर दिखाऊंगी वह तो देख करना जलेंगे। वह तो हमारे मन का हाल जानते हैं।
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भगवान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊं, तुम अंतर्यामी हो, तो मेरे रोम रोम का हाल जानते हो। मैं चाहती हूँ कि उन्हें अपना ईष्ट समझाऊ उनके चरणों की सेवा करूँ, उनके इशारों पर चलू, उन्हें मेरी किसी बात से, किसी व्यवहार से नाममात्र भी दुख ना हो। वह निर्दोष है, जो कुछ मेरे भाग्य में था वह हुआ, ना उनका दोष है, ना माता पिता का, सारा दोष मेरे नसीबों का है। लेकिन यह सब जानते हुए भी जब उन्हें आते देखती हूँ, तो मेरा दिल बैठ जाता है, मुँह पर मुर्दनी सी छा जाती है, सिर भारी हो जाता है, जीत जाता है कि इनकी सूरत न देखो, बात तक करने को जी नहीं चाहता; कदाचित शत्रु को भी देखकर किसी का मन इतना क्लांत नहीं होता होगा।
उनके आने के समय दिल में धड़कन सिंह होने लगती है। एक-दो दिन के लिए कहीं चले जाते हैं तो दिल से बोझ उठ जाता है। हस्ती भी है, बोलती भी हूँ, जीवन में कुछ आनन्द आने लगता है लेकिन उनके आने का समाचार पाते ही फिर चारों ओर अंधकार; चित् की ऐसी दशा क्यों है, यह मैं नहीं कह सकती। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि पूर्व जन्म में हम दोनों में बैर था, उसी बेर का बदला लेने के लिए उन्होंने मुझसे विवाह किया, वही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं। नहीं तो वह मुझे देख देखकर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घृणा करती? विवाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मैं अपने घर कही इससे सूखी थी।
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कदाचित मैच जीवनपर्यंत अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेकिन इस लोग प्रथा का बुरा हो, जो अभागिन कन्याओं को किसी ना किसी पुरुष के गले में बांध देना अनिवार्य समझती है। वह क्या जानता है कि कितनी युवतिया उसके नाम को रो रही है, कितने अभिलाषाओं से लहराते हुए, कोमल हृदय उसके पैरों तल रौंदे जा रहे हैं? युवती के लिए पति कैसी कैसी मधुर कल्पनाओं का स्रोत होता है, पुरुष में तो उत्तम है, श्रेष्ठ है, दर्शनीय है, उसकी सजी मूर्ति इस शब्द के ध्यान में आते ही उसकी नजरों के सामने आकर खड़ी हो जाती है।
लेकिन मेरे लिए यह शब्द क्या है। हृदय में उठने वाला शूल, कॉलेज में खटकने वाला काटा, आंखोमे गढ़नेवाला किरकिरी, अंत करण को बंधनेवाला व्यंग बाण! सुशीला को हमेशा हँसते देखती हूँ। वह कभी अपनी दरिद्रता का गिला नहीं करती; गहने नहीं है, कपड़े नहीं है, किराये के छोटे से मकान में रहती है, अपने हाथों घर का सारा कामकाज करती है, फिर भी उसे रोते नहीं देखती अगर अपने बस की बात होती तो आज अपने धन को उसकी दरिद्रता से बदल देती। अपने पतिदेव को मुस्कुराए हुए घर में आते देखकर उसका सारा दुख दारिद्र छूमंतर हो जाता है, छाती गज भर की हो जाती है। उसके प्रेम आलिंगन में वह सुख है, जिसपर तीनों लोगों का धन न्योछावर कर दूं।
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आज मुझ से रहा ना गया। मैने पूछा-तुमने मुझसे इसलिए विवाह किया था? यह प्रश्न महीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली जाती थी। आज प्याला झलक पड़ा। यहाँ प्रश्न सुनकर कुछ बौखला से गए, बगलें झांकने लगे, किसे निकालकर बोले-घर संभालने के लिए, गृहस्थी का भार उठाने के लिए, और नहीं क्या भोग विलास के लिए? गृहिणी के बिना घर भूत का डेरा सा मालूम होता था।
नौकर चाकर घर की संपत्ति उड़ा देते थे। जो चीज़ जहाँ पड़ी रहती थी, कोई उसको देखने वाला न था। तो अब मालूम हुआ कि मैं इस घर की चौकसी के लिए लाई गई हूँ। मुझे इस घर की रक्षा करनी चाहिए और अपने को धन्य समझना चाहिए कि यह सारी संपत्ति मेरी है। मुख्य वस्तु संपत्ति है, मैं तो केवल चौकीदार इन हूँ। ऐसे घर में आज ही आग लग जाए! अब तक तो मैं अंजान मैं घर की चौकसी करती थी, जितना बाद चाहते हैं उतना न सही, पर अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य करती थी।

आज से किसी चीज़ को भूलकर भी स्पर्श करने की कसम खाती हूँ। यहाँ मैं जानती हूँ। कोई पुरुष घर की चौकसी के लिए विवाह नहीं करता और इन महाशय ने चिढ़कर यह बात मुझसे कहीं। लेकिन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री के बिना घर सूना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंजरे में चिड़िया को न देखकर पिंजरा सुना लगता है। यह हम स्त्रियों का भाग्य!
मालूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्यों है। जब से नसीब इस घर में लाया है, इन्हें बराबर संदेह मूल कटाक्ष करते देखती हूँ। क्या कारण है? ज़रा बाल गुदवाकर बैठी और यह होंठ चबाने लगे। कही जाती नहीं, कही आती नहीं, किसी से बोलती नहीं, फिर भी इतना संदेह! यह अपमान सहनीय नहीं है। क्या मुझे अपनी आबरू प्यारी नहीं? यह मुझे इतनी छिछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझ पर संदेह करते लज्जा नहीं आती? काना आदमी किसी को हँसते देखता है तो समझता है लोग मुझ पर हँस रहे हैं।
शायद इन्हें भी यही वहम हो गया है कि मैं इन्हें चिढ़ाती हूँ। अपने अधिकार के बाहर से बाहर कोई काम कर बैठने से कदाचित हमारे चित् कि यह हालत हो जाती है। भिक्षु राजा की गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ शत्रु दिखाई देंगे। मैं समझती हूँ, सभी शादी करने वाले बुड्ढों का यही हाल है।
आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुरजी की झांकी देखने जा रही थी। अब यह साधारण बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि फूहड़ बहू बनकर बाहर निकलना अपनी हँसी उड़ाना है, लेकिन आप उसी वक्त न जाने किधर से टपक पड़े और मेरी और तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले-कहा की तैयारी है?
मैने कह दिया, ज़रा ठाकुरजी की झांकी देखने जाती हूँ। इतना सुनते ही आस्तीन चढ़ाकर बोलें-तुम्हें जाने की कुछ जरूरत नहीं। जो अपने पति की सेवा नहीं कर सकतीं, उसे देवताओं के दर्शन से पुण्य के बदले पाप होता है। मुझसे उड़ने चली हो। मैं औरतों की नस नस पहचानना हूँ।
ऐसा क्रोध आया कि बस अब क्या कहूं। उसी समय कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि अब कभी दर्शन करने नहीं जाउंगी। इस अविश्वास का भी कोई ठिकाना है ना जाने क्या सोचकर रुक गई। उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते हैं।
इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है। मुझे मन में कृतघ्न समझते हैं। अपनी समझ में उन्होंने मेरे से विवाह करके शायद मुझ पर एहसान किया है। इनकी बड़ी जायदाद और विशाल संपत्ति की स्वामिनी होकर मुझे फूले न समझना चाहिए था, आठो पहर इनका यशगान करते रहना चाहिए था। मैं यह सब कुछ ना करके उलटे और मुँह लटकाए रहती हूँ। कभी कभी बेचारे पर दया आती है। यह नहीं समझते कि नारी जीवन में कोई ऐसी वस्तु भी है जिसे देखकर उसकी आँखों में स्वर्ग भी नर्क तुल्य हो जाता है।
3 दिन से बीमार हैं। डॉक्टर कहते हैं, बचने की आशा नहीं, निमोनिया हो गया है। पर मुझे न जाने क्यों इनका गम नहीं है। मैं इतनी वज्र हृदय कभी न थी। ना जाने मेरी कोमलता कहाँ चली गई। किसी बीमारी की सूरत देखकर मेरा हृदय करुणा से चंचल हो जाता था, मैं किसी का रोना नहीं सुन सकती थी। वही मैं हूँ कि आज 3 दिन से उन्हें बगल के कमरे में पड़े रहते सुनती हूँ और एक बार भी उन्हें देखने न गई, आंखो में आंसू का जिक्र ही क्या।
मुझे ऐसा मालूम होता है, इससे मेरा कोई नाता ही नहीं मुझे चाहे कोई पिशाचिनी कहें, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं है कि इनकी बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईशामय आनन्द आ रहा है। उन्होंने मुझे यहाँ कारावास दे रखा था-मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती-यह कारावास ही है। मैं इतनी उदार नहीं हूँ कि जिसने मुझे कैद में डाल रखा हो उसकी पूजा करूँ, जो मुझे लात से मारे मैं उसके पैरों को चूमूँ। मुझे तो मालूम हो रहा था, ईश्वर इन्हें इस पाप का दंड दे रहे हैं।
मैं निसंकोच होकर कहती हूँ कि मेरा इनसे विवाह नहीं हुआ है। स्त्री किसी के गले बांध दिए जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जातीं। वही संयोग विवाह का पद पा सकता है, जिसमें कम से कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाए! सुनती हूँ, महाशय अपने कमरे में पड़े पड़े मुझे कोसा करते हैं, अपनी बीमारी का सारा बुखार मुझ पर निकालते हैं, लेकिन यहाँ इसकी परवाह नहीं। जिसका जो जी चाहे जायजाद लें, धन लें, मुझे इसकी जरूरत नहीं!
आज 3 दिन हुए, मैं विधवा होगयी, कम से कम लोग यही कहते हैं। जिसका जो जी चाहे कहें, मैं अपने को जो कुछ समझती हूँ वह समझती हूँ। मैने चूड़ियां नहीं तोड़ी, क्यों तोडू? मांग में सिंदूर पहले भी नहीं डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढ़े बाबा का क्रियाक्रम उनके सुपुत्र ने किया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएँ होती है, कोई मेरे गुथे बालों को देखकर नाक सिकोड़ता है, कोई मेरे आभूषणों पर आंख मटकाता है, यहाँ इसकी चिंता नहीं।
उन्हें चिढ़ाने को मैं भी रंग बिरंगी साड़ियाँ पहनती हूँ, और भी बनती संवरती हूँ, मुझे ज़रा भी दुख नहीं है। मैं तो कैसे छुट गयी। इधर कई दिन सुशीला के घर गयी। छोटा सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाई तक नहीं, पर सुशीला कितने आनन्द से रहती है। उसका उल्लाह देखकर मेरे मन में भी भांति भांति की कल्पनाएं उठने लगती है-उन्हें कुत्सित क्यों कहूं, जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता। इनके जीवन में कितना उत्साह है। आँखे मुस्कुराती रहती है, होठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है।
बातों में प्रेम का स्रोत बहता हुआ जान पड़ता है। इस आनंद से चाहे वह कितना भी क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है, फिर उसे कोई भूल नहीं सकता, इसकी स्मृति अंत के लिए काफी हो जाती है, इस मिज़राब की चोट हृदय के तानों को अनंत काल तक मधुर स्वरों में कंपित रख सकती है।
1 दिन मैने सुशीला से कहा-अगर तेरे पति कहीं प्रदेश चले जाए तो तू रोते रोते मर जाएगी!
सुशीला गंभीर भाव से बोली-नहीं बहन नहीं मरूंगी, उनकी याद सदैव प्रफुल्लित करती रहेंगी, चाहे उन्हें पर देश में बरसों लग जाए।
मैं यही प्रेम चाहती हूँ, इसी चोट के लिए मेरा मन तडपता है, मैं भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूँ जिसे दिल के तार सदैव बजते रहे, जिसका नशा नृत्य छाया रहे।
रात रोते रोते हिचकियाँ बंध गईं। ना जाने क्यों दिल भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहाँ बगलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथों की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कहीं सैर करने जाने की भी इच्छा नहीं होती, क्या चाहती हूँ वह मैं स्वयं भी नहीं जानती। लेकिन मैं जो जानती वह मेरा एक एक रोम रोम जानता है, मैं अपनी भावनाओं कि संजीव मूर्ति हूँ, मेरा एक एक अंग मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है।
मेरे चित्त की चंचलता उस अंतिम दशा को पहुँच गई है, जब मनुष्य को निंदा की न लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता पिता ने मुझे कुएं में धकेला, ज इस भाषण हृदय प्राणी ने मेरी मांग में सिंदूर डालने का स्वाग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार बार दुष् कामनाएं उठती है। मैं उन्हें लज्जित करना चाहती हूँ। मैं अपने मुँह में कालिख लगाकर उनके मुँह में कालिख लगाना चाहती हूँ, मैं अपने प्राण देकर उन्हें प्राणदण्ड दिलाना चाहती हूँ। मेरा नारित्व लुप्त हो गया है। मेरे हृदय में प्रचंड ज्वाला उठी हुई है।
घर के सारे आदमी सो रहे थे। मैं चुपके से नीचे उतरी, दौर खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौडे। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।
सड़क पर सन्नाटा था, दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा एक बढ़िया आती हुई दिखाई दीं। मैं डरी कही यह चुडैल ना हो। बुढिया ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पांव तक देखा और बोली-किसकी राह देख रही हो
मैने चिढ़कर कहा-मौत की!
बुढ़िया-तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिंदगी के बड़े बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंधेरी रात गुजर गई, आसमान पर सुबह की रौशनी नजर आ रही है।
मैने हंसकर कहा-अंधेरे में भी तुम्हारी आंखें इतनी तेज है कि नसीबों की लिखावट पढ़ लेती हो?
बुढ़िया-आँखों से नहीं पढ़ती बेटी, अकल से पढ़ती हूँ, धूप में चुडे नहीं सफेद किए हैं। तुम्हारे बुरे दिन गए और अच्छे दिन आ रहे हैं। हंसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र गुजरी है। इस बुढ़िया की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थी, वे आज फूलों की सेज पर सो रही है, जो जहर का प्याला पीने को तैयार थी, वे आज दूध की कुलिया कर रही है।
इसलिए इतनी रात गए निकलती हूँ कि अपने हाथों किसी अभागिन का उद्धार हो सके तो करूँ। किसी से कुछ नहीं मांगती, भगवान का दिया सबकुछ घर में है, केवल यही इच्छा है जिन्हें धन की आवश्यकता है उन्हें धन मिले, जिन्हें संतान की इच्छा है उन्हें संतान, बस और क्या कहूँ, वह मंत्र बता देती हूँ जिसकी जो इच्छा जो वह पूरी हो जाए।
मैने कहा-मुझे ना धन चाहिए ना संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है।
बढ़िया हँसी-बेटी जो तुम चाहती हो वह मैं जानती हूँ; तुम वहाँ चीज़ चाहती हो जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवता के वरदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाशकुसुम है, गूलर का फूल है और अमावस का चान्द है। लेकिन मेरे मंत्र में वह शक्ति है जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो, मैं तुम्हें उस नाव पर बैठा सकती हूँ जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तरंगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हें पार उतार दें।
मैने उत्कंठित होकर पूछा-माता, तुम्हारा घर कहाँ है।
बुढ़िया-बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलो तो मैं अपनी आँखों पर बैठा कर ले चलू।
मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी हैं। उसके पीछे पीछे चल पड़ी।
वह बढ़िया जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी नरक की डायन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विश्व मिला, निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी वह वस्तु न मिलतीं थी, ना मिली। मैं सुशीला जैसा सुख चाहती थी, कुलटा कि विषय वासना नहीं। लेकिन जीवनपथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर आना कठिन है।
लेकिन मेरे अध पतन का अपराध मेरे सिर नहीं, मेरे माता पिता और उस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियाँ ना लिखती, लेकिन इस विचार से लिख रही हूँ कि मेरी आत्मकथा पढ़कर लोगों की आंखें खुले; मैं फिर कहती हूँ कि अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो जायजाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो।
अगर उसके लिए जोड़ा कावर नहीं पा सकते तो लड़की को कुंआरी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खडूस से विवाह मत करो। स्त्री सब कुछ सह सकती है। दारुण से दारुण दुख, बड़े से बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकतीं तो केवल अपने युवाकाल की उमंगों का कुचला जाना।
रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं। इस कदम दशा को भी उस दशा से न बदलेंगी, जिससे निकल कर आई हूँ।